साम्प्रदायिकता से संघर्ष और प्रेमचन्द : राजीव रंजन गिरि
स्वाधीनता-आन्दोलन के दौर में साम्प्रदायिक समस्या एक बड़ी चुनौती के तौर पर सामने थी। तरक्कीपसन्द ख्याल के नेता, बुद्धिधर्मी, पत्रकार, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता सभी अपने-अपने तरीके से इस भयावह चुनौती का सामना कर रहे थे। हिन्दी-उर्दू के अमर कथाकार प्रेमचन्द ने भी इस समस्या को सामने विश्लेषित करने और इसके मुखर विरोध में अपनी भागीदारी दर्ज कराई। प्रेमचन्द ने हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों की जटिलता और इसे साम्प्रदायिक रूप देने की कोशिशों पर न सिर्फ कथा लिखी बल्कि एक जागरूक पत्रकार की तरह इन पर लेख और टिप्पणियाँ भी लिखीं। इन लेखों, टिप्पणियों में प्रेमचन्द का साम्प्रदायिकता के विरुद्ध रुख स्पष्टतया झलकता है। बीस-तीस के दशक में मुल्क की आबोहवा को प्रभावित करने वाली तमाम घटनाओं पर प्रेमचन्द की पैनी निगाह लगी हुई थी। इनमें से जो भी खतरा दिखता था, वे उस पर गहरी चोट करते थे। मुस्लिम-लीग और हिन्दू महासभा के अलावा कई छोटे-छोटे संगठन थे जो अपना-अपना संकीर्ण हित साधने के मकसद से देश की आबोहवा खराब कर रहे थे। अँग्रेजी हुकूमत को भी इनसे लाभ था। इसलिए सत्ता इन्हें शह प्रदान कर रही थी।
उन्नीसवीं सदी में भी यह दिखने लगा था कि सत्ता में भागीदारी की आपसी प्रतिस्पर्धा और होड़ ने हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता के बीज को पल्लवित-पुष्पित करने के लिए उर्वर जमीन तैयार करने में एक बड़ी भूमिका अदा की थी। यह आपसी होड़ ऊपरी वर्ग के लोगों के बीच थी। पर इस वर्ग ने अपने हित को साधने के लिए, इसे अपने पूरे धर्म का हित बताकर अपने-अपने धर्मावलम्बियों को अपने पीछे गोलबन्द करने की कोशिश की। इस मकसद में वे एक हद तक सफल भी हुए। अँग्रेजी सत्ता, ने कभी इस धर्म को, तो कभी उस धर्म को तुष्ट करके इनके बीच उभर रहे विभेद को बढ़ाने में मदद की। प्रेमचन्द के जमाने में यह भेद एक विकराल रूप धारण कर चुका था।
हिन्दू-मुसलमान के बीच पसरता साम्प्रदायिकता का यह सवाल स्वाधीनता-संग्राम, राष्ट्रवादी मानस और स्वराज प्राप्ति के मार्ग में रुकावट पैदा कर रहा था। साम्प्रदायिक दंगे कराने वाले और धर्म के आधार पर कत्लेआम कराने वाले लोगों का दीन-ईमान नहीं होता है। ऐसे लोग हर बार साम्प्रदायिकता को दूसरे कारकों से जोड़कर बताते हैं। आशय यह है कि चोर-दरवाज़े से साम्प्रदायिक विचारों को लोगों के सामने पेश करते हैं। असल में राष्ट्रवादी चेतना को बगैर कमजोर किए हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के कट्टपन्थियों का अपना स्वार्थ नहीं सध सकता। इसलिए वे अपने धर्म के स्वयम्भू प्रवक्ता या नेता बन जाते हैं जबकि हकीकत में अपने धर्मावलम्बियों के जीवन की वास्तविकता, समस्याओं से इनका लेन-देन भी नहीं होता।
स्वाधीनता-आन्दोलन के दौरान कट्टरपन्थी, साम्प्रदायिक नेता सभ्यता और संस्कृति की रक्षा की दुहाई देते थे। हिन्दू-मुस्लिम एकता को दरकाने के लिये इनकी सभ्यता-संस्कृति के बीच के फर्क पर ज्यादा बल देते थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ऐसे लोगों का जवाब देते हुए लिखा था कि ''संस्कृति के इस भेद का साम्प्रदायिक समस्या से क्या सम्बन्ध है? भारत में सांस्कृतिक या वंशगत भेद मौजूद हैं, लेकिन इन भेदों का सम्प्रदायों से कोई सम्बन्ध नहीं है। अगर कोई आदमी किसी दूसरे मत में चला जाए तो इससे उसके वंशगत या जीवगत संस्कार नहीं बदल जाते, न उसका सांस्कृतिक आधार ही बदल जाता है। संस्कृति राष्ट्रीय वस्तु है, धार्मिक नहीं और नयी परिस्थितियाँ अन्तररराष्ट्रीय जाति-विभाग का ही विकास कर रही हैं। पूर्वकाल में भी भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का एक-दूसरे पर असर पड़ता था, लेकिन राष्ट्रीय प्रणाली ही प्रधान रहती थी। भारत, ईरान, चीन आदि प्राचीन देशों में ऐसा ही हुआ है।’’
प्रेमचन्द ने नेहरूजी की राय से सहमति व्यक्त करते हुए 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति’ शीर्षक निबन्ध में लिखा ''साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायत लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक स्वरक्षित रखना चाहता था, और मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं। यह भूल गये हैं, कि अब न कहीं मुस्लिम संस्कृति है, न कहीं हिन्दू संस्कृति, न कोई अन्य संस्कृति, अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति। मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं। हालाँकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है लेकिन ईसाई संस्कृति और मुस्लिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है।’’
संस्कृति के राष्ट्रीय पक्ष पर बल देने की धारणा हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के कट्टर तबके और नेताओं के खतरनाक मंसूबे का जवाब है।
हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे धर्मों की विशेषताओं से ज्यादातर नावाकिफ रहते हैं। इसी का नतीज़ा है कि एक-दूसरे केे प्रति गलतफहमी है। यह गलतफहमी इन दोनों धर्मावलम्बियों को अलगाने में भूमिका निभाती है। इसलिए दोनों धर्मों के लोगों को एक-दूसरे के धर्मों की अच्छ बातों से वाकिफ होना जरूरी होता है। असल में सभी धर्मों का सार तत्त्व एक होता है। परस्पर प्रेम और दूसरे धर्मों के प्रति आदर की भावना हर धर्म के केन्द्र में होता है। कट्टर धार्मिक नेता अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे धर्म को कमतर मानते-बताते हैं। दूसरे धर्म के बारे में दुष्प्रचार कर आम लोगों को ठगने और अन्य धर्मों के प्रति सशंकित बनाने का काम करते हैं। जुलाई 1933 में बनारस के टाउन हॉल में इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद के जन्मोत्सव के उपलक्ष में एक जलसा हुआ था।
इस जलसे में मौलाना आजाद सुभानी, मौलाना अब्दुल खैर और पंडित सुन्दरलाल मुख्य वक्ता थे। सभापति के तौर पर डॉ० अब्दुल्ल करीम मौजूद थे। प्रेमचन्द भी इसी जलसे में शरीक थे। जलसा के बाद इन्होंने 'हज़रत मुहम्मद की पुण्य स्मृति’ शीर्षक लेख लिखा। ''इतनी सदियों तक एक साथ, पड़ोस में रहने पर भी, हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे के धार्मिक सिद्धान्तों और सच्चाई से इतने अपरिचित हैं कि सुन्दरलालजी के कथन ने बहुतेरे हिन्दुओं को चकित कर दिया होगा। जिस तरह अब तक मुसलमानों ने हिन्दुओं को काफिर समझकर उनके विषय में अब और ज्यादा जानने की जरूरत न समझी, उसी भाँति हिन्दुओं ने भी इस्लाम के विषय में कुछ गलत धारणाएँ बना ली हैं, और 'रंगीला रसूल’ के ढंग की पुस्तकें पढऩे से ये गलत धारणाएँ और भी पत्थर की लकीर हो गयी हैं। इन सभी मिथ्या धारणाओं का पंडित जी ने इतने प्रभावोत्पादक शब्दों में निराकरण किया कि बहुतों के हृदय से वे धारणाएँ निकल गयी होंगी। यह आम तौर पर कहा जाता है कि इस्लाम धर्म तलवार के जोर से फैला और यह कि हजरत मुहम्मद ने अपने सम्प्रदाय क ो आज्ञा दी है कि काफिरों को कत्ल करना ही स्वर्ग की कुंजी है पर पंडितजी ने बताया कि यह बातें कितनी गलत और द्वेष पैदा करने वाली हैं। हजरत मुहम्मद ने कभी किसी पर हमला नहीं किया। उनके जीवन में ऐसी एक मिसाल भी नहीं मिलती, कि उन्होंने प्रचार के लिए या विजय के लिए किसी पर फ ौजकशी की हो। जब भी कभी उन्होंने तलवार उठायी तो शत्रुओं से अपनी रक्षा करने के लिए और वह भी उस हालत में जब और किसी तरह शत्रु अपने अन्याय से बाज न आया। कत्ल करने की जगह उन्होंने सदैव क्षमा की। यह कहा जा सकता है कि क्षमा उनके जीवन का मुख्य तत्त्व था।’’
उसी दौर में गलत तथ्यों का सहारा लेकर आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने एक किताब लिखी थी– 'इस्लाम का विषवृक्ष’। द्वेष फैलाने वाली इस किताब के विरोध में प्रेमचन्द ने तीखा लेख लिखा और इस किताब की बातों का खंडन किया। प्रेमचन्द ने लिखा है कि ''हजरत मुहम्मद ने कहीं भी नये धर्म के प्रवर्तक का दावा नहीं किया। उन्होंने बार-बार कहा कि मैं प्राचीन नबियों के धर्म को ही पुनर्जीवित करने आया हूँ। उन्होंने बार-बार कहा है कि हर एक धर्म का सम्मान करो, क्योंकि सब धर्मों की तह में केवल सच्चाई है। किसी धर्म की उन्होंने निन्दा नहीं की। जब हजरत एक राज्य के अधिकारी हो गये और वह तलवार के जोर से जनता को मुसलमान बना सकते थे, तब भी उन्होंने हर एक धर्म को अपने मतानुसार उपासना करने की स्वाधीनता दे दी थी। यहाँ तक कि मूर्ति पूजकों पर भी कोई बन्धन न था और हरेक धर्म के पवित्र स्थानों की रक्षा करना मुस्लिम सरकार अपना कर्तव्य समझती थी।’’ इस प्रकार इस्लाम को लेकर हिन्दुओं के बीच भ्रम और शुबहा पैदा करने वाले विचारों का प्रेमचन्द ने मुखर विरोध किया।
प्रेमचन्द ने हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के साम्प्रदायिक नेताओं की मुखालफत की। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता को स्वराज्य की बुनियादी शर्त मानते थे। बल्कि कई दफा उन्होंने इस एकता को ही स्वराज्य की संज्ञा दी है। दोनों धर्मों के बीच स्वस्थ संवाद और एक-दूसरे के प्रति आदर-भाव के जरिये ही यह सम्भव हो सकता था। इसलिए वे अपने लेखों के जरिये, बार-बार इस बात पर जोर दे रहे थे। मौजूदा दौर में जब फिर से साम्प्रदायिक ताक तें सिर उठा रही हैं, प्रेमचन्द के धर्मनिरपेक्ष, स्वस्थ, लोकतान्त्रिक एवं तार्किक विचारों की प्रासंगिकता बढ़ गयी है।
(2007)
धर्म के कट्टर ठेकेदारों ने धर्म के असल अर्थ को ही परिवर्तित कर दिया...आज के परिप्रेक्ष्य में प्रेमचंद जी बहुत ही प्रासंगिक प्रतीत होते हैं
जवाब देंहटाएंगम्भीर और सारगर्भित लेख.अपने लेखन में प्रेमचंद ने घृणा और विद्वेष का पुरजोर विरोध किया.. है.प्रेमचंद को निरन्तर मनन करना ज़रूरी है.
जवाब देंहटाएंप्रो मीरा गौतम
पंजाब
Padkar bahut accha laga . Lekin afsos ki bat yah hai ki aaj bhi yah samasya bani huyi hai.
जवाब देंहटाएंPadhkar bahut achha laga. Lekin afsos ki bat yah hai ki aaj bhi yah samasya bani huyi hai.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर 👌👌
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