लमही में प्रेमचन्द : राजीव रंजन गिरि
प्रेमचन्द के गाँव लमही के नाम पर लखनऊ से एक त्रैमासिक पत्रिका शुरू हुई है। 'लमही’ के दूसरे अंक (अक्टूबर-दिसम्बर) में वरिष्ठ आलोचक भवदेव पांडेय ने फिराक गोरखपुरी से सम्बन्धित कुछ तथ्यों पर प्रकाश डाला है। प्रेमचन्द द्वारा स्थापित 'सरस्वती प्रेस’ में कमलापति मिश्र काम करते थे। काम के दौरान उन्हें प्रेमचन्द के सौतेेले भाई बाबू महताब राय का भी सान्निध्य मिला। कमलापति मिश्र ने 'लमही के दो रत्न’ शीर्षक संस्मरण में दोनों भाइयों क ो याद किया है। इनके मुताबिक बाबू महताब राय शुरुआती दौर में, बस्ती में बन्दोबस्त के महकमे में काम करते थे। थोड़े दिनों बाद बन्दोबस्त महकमा टूट जाने के कारण वे बेरोजगार हो गये। ''महताब राय प्रकृत्या ऐसे आत्माभिमानी थे कि किसी के समक्ष न अपनी असहायता प्रकट करते, न नौकरी के लिए किसी सिफारिश आदि का सहारा लेने का प्रयत्न करते। महताब राय को अपने कर्मण्य स्वभाव, दृढ़ निश्चय और विश्वसनीयता पर अगाध विश्वास था।’’
बन्दोबस्त विभाग में काम के दौरान इनका सम्बन्ध आई.सी.एस. ऑफिसर आर्थर से बन गया। बेरोजगार होने के थोड़े दिनों बाद आर्थर ने उन्हें इलाहाबाद हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार पद का नियुक्ति पत्र भेजा। कमलापति मिश्र के अनुसार महताब राय ने इलाहाबाद जाने का मन बना लिया था लेकिन बड़े भाई प्रेमचन्द ने सरकारी नौकरी नहीं कर, गोरखपुर के प्रतिष्ठित व्यवसायी महावीर प्रसाद पोद्दार के प्रेस में काम करने के लिए प्रेरित किया। कमलापति मिश्र ने 11 मार्च 1920 को प्रेमचन्द द्वारा अपने अजीज दोस्त दयानारायण निगम को लिखा पत्र पेश किया है। इस चिट्ठी का मजमून बताता है कि प्रेमचन्द की इच्छा थी कि जब अपना छापाखाना कायम होगा, तो महताब राय को यहाँ बुला लूँगा। उस दौरान महताब राय साठ रुपये माहवार पर बतौर मैनेजर काम कर रहे थे। इस चिट्ठी के मजमून से यह भी पता चलता है कि महताब राय को काम करते कुछ समय बीत चुके थे। छापाखाना के मालिक पोद्दार, उन्हें नफे में भी कुछ हिस्सा देना चाहते थे। प्रेमचन्द ने लिखा है ''वह (महताब राय) काम से खूब वाकिफ हो गये हैं।’’
गौरतलब है कि प्रेमचन्द ने 8 फरवरी 1921 ई. को गोरखपुर के गाजी मियाँ मैदान में महात्मा गांधी का भाषण सुनने के बाद सरकारी नौकरी से इस्तीफा दिया। 1920 से ही उन्हें छापाखाना खोलने, पत्रिका निकालने की इच्छा हो रही थी। पर जोखिम लेने से घबराते थे। स्कूल शिक्षक की नौकरी छोड़ते वक्त भी वह ऊहापोह में थे। फिर शिवरानी देवी ने उन्हें मन के काम यानी नौकरी छोडऩे हेतु प्रेरित किया। प्रेमचन्द ने खुद नौकरी छोडऩे से काफी पहले महताब राय को सरकारी नौकरी नहीं करने के लिए प्रेरित किया था।
कलकत्ता से महताब राय को बुलाकर बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने 'ज्ञानमंडल’ का व्यवस्थापक नियुक्त किया। सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने के बाद प्रेमचन्द काशी में रहने लगे। फिर प्रेस और प्रकाशन खोला तथा महताब राय को 'ज्ञानमंडल’ छोड़कर अपना प्रेस चलाने के लिए दबाव डाला। महताब राय ने प्रेमचन्द की आज्ञा मान वैसा ही किया। कालान्तर में महताब राय की एक किताब 'मनमोदक’ भी इसी प्रेस से छपी। कुछ समय बाद प्रेमचन्द और महताब राय के बीच प्रेस को लेकर तनाव हो गया। बकौल कमलापति मिश्र ''शिवरानी देवी ने प्रेमचन्द पर जोर डाला कि महताब राय प्रेस में एक नौकर की तरह रहें, हिस्सेदार, के समान नहीं। प्राय: प्रतिदिन घर में महताब राय को लेकर अप्रिय प्रसंग उठा करते। प्रेस घाटे में चल रहा था। महताब राय विवशता की स्थिति में प्रेस से अलग हो गये।’’ प्रेमचन्द के व्यक्तित्व के कुछ अन्तर्विरोध दिखते हैं, जिन पर अभी भी काफी पड़ताल करने की जरूरत है। सरस्वती प्रेस को लेकर अपने भाई महताब राय के साथ प्रेमचन्द का बर्ताव, मजदूरों की हड़ताल और प्रेस मैनेजर प्रवासीलाल वर्मा के साथ रुपयों को लेकर हुई टकराहट और जागरण को लेकर विनोदशंकर व्यास के साथ हुआ विवाद, ऐसे मामले हैं जिनमें प्रेमचन्द की भूमिका विवादास्पद है।
हिन्दी में बड़े साहित्यकारों के प्रति श्रद्धा-भक्ति का आलम यह है कि उनके साहित्य और व्यक्तित्व के अन्तर्विरोधों को नजरअन्दाज कर दिया जाता है। कभी-कभार इसकी चर्चा होती भी है तो दबी जुबान से। ऐसे अन्तर्विरोधों का उजागर होना जरूरी है। 'लमही’ को सन्तुलित और तर्कसंगत ढंग से ऐसी रचनाएँ प्रकाशित करने के लिए याद किया जाएगा।
(2009)
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