समकालीनों पर शमशेर :
राजीव रंजन गिरि
प्रगतिवादी कविता के महत्त्वपूर्ण क वि शमशेर बहादुुर सिंह, अपनी कविता में, शब्दों की मितव्ययिता के लिए जाने जाते हैं। कम-से-कम शब्दों में, कविता का पूरा वितान खड़ा कर देना, उनकी खासियत है। 'कवियों के कवि’ माने जाने वाले शमशेर के भीतर बेहद संवेदनशील समीक्षक होने का सबूत मिलता है, अपने समकालीनों के बारे में जाहिर की गयी उनकी राय से। छायावादोत्तर कविता में, एक साथ, इतने महत्त्वपूर्ण कवि इसी दौर में थे। अपने समकालीनों के बारे में शमशेर की राय जानने-पढऩे का मौका मुहैया कराया है, 'उद्भावना’ के शमशेर बहादुर सिंह विशेषांक, 'होड़ में पराजित काल’ ने। इस विशेषांक का सम्पादन किया है कवि-समीक्षक विष्णु खरे ने। इस विशेषांक में शमशेर का एक निबन्ध 'एक बिल्कुल पर्सनल एसे’ प्रकाशित हुआ है। इसमें शमशेर अपने सखा कवि नागार्जुन के बारे में लिखते हैं कि 'मेरे कुछ प्रिय हिन्दी कवि ...इनमें सबसे पहले, सबसे पहले मेरे ध्यान में नागार्जुन आते हैं। क्यों? मैं सोचता हूँ, तो ऐसा मालूम होता है कि इसकी वजह उनका यह खरा और सच्चा-सीधा व्यक्तित्व है, जिसके कण-कण से अपने देश की मिट्टी का सोंधापन महसूस होता है। नागार्जुन, भाषा और साहित्य का रस-मर्मज्ञ पंडित होता हुआ भी गाँव-गँवई की चिलम-सा 'रफ’ और अपनाव भरा है– जैसे अनुभवी जनों के चुटुकलों का गहरा संकेत।’
शमशेर बहादुर सिंह ने अपने प्रिय हिन्दी कवि के तौर पर अतिरिक्त जोर देकर नागार्जुन का नाम लिया है। शमशेर जैसे मितव्ययी कवि के लिए 'सबसे पहले’ दो बार कहना अतिरिक्त बल को दर्शाता है। शमशेर ने लिखा है कि नागार्जुन के शब्द बड़ी पोढ़ी उँगलियों से हमारी चेतना को पकड़ते हैं। उसके भाव हमारी आँखों में आँखें डालकर हमसे बात करते हैं। यह मुँहफट कवि अक्सर मुझे सबसे बड़ा, सुलझा हुआ, सबसे आधुनिक, सबसे जागरूक, कवि लगता है। काश! कि मैं स्वयं कभी उसकी कविताओं का चयन करता– कोई सौ-सवा सौ कविताओं का, और तब दिखा सकता, इस कवि के प्रयोग, इस कवि की गूढ़ व्यंजनाएँ– दिखा सकता, कैसे इस युग का हिन्दी का सबसे बड़ा व्यंग्यकार कवि जिसको इतिहास भुलाएगा नहीं, यही कवि है। 'तालाब की मछलियाँ’, 'प्रेत का बयान’, 'पर्चा बाँटने वाला’, 'दुखहरन मास्टर’, इसके उदाहरण हैं। हम कटु व्यंग्य और हास्य के नानारूप ही नहीं देखते– जिनमें शासन और समाज का भ्रष्टाचार और पाखंड और पूँजीवादी तत्त्वों की बर्बर हिंसात्मक लिप्सा अपने नग्न रूप में सामने आती है, –उनकी कविताएँ संघर्षरत साहसी युवकों और शोषित श्रमिक वीरों की दुनिया में भी हमें ले जाती हैं। शहीदों की पावन याद को हमारी आँखों में बसाने वाला और कौन दूसरा कवि हिन्दी में लिख रहा है, कोई मुझे बताए। आज के अत्यन्त सस्ते, खोखले दम्भ के युग में नागार्जुन की कविताएँ कीमती दस्तावेज हैं। इसीलिए यह मुझे आज के कवियों में सबसे अधिक प्रिय है। शमशेर के मुताबिक नागार्जुन के यहाँ उत्कृष्ट से उत्कृष्ट शिल्प है। शमशेर यह भी बताते हैं कि नागार्जुन के यहाँ भोंड़ा शिल्प भी मौजूद है। पर, ऐसी कविताओं को एकदम अलगाना किंचित भी कठिन नहीं, जो किसी वक्ती काम के लिए रवा-रवी में लिख दी गई है। शमशेर मानते हैं कि नागार्जुन की दो कविताएँ 'बहुत दिनों के बाद’ और 'ज्येष्ठ’ (मैथिली) शीर्षक कविताएँ प्राचीन क्लासिकों के बराबर हैं। इन कविताओं को प्राचीन क्लासिकों के बराबर रखकर देखने पर इनकी आब जरा भी कम न दिखेगी, बल्कि और भी इनकी खूबसूरत आँखों में तैरने लगेंगी। इनमें कैसा गहरा– जैसे मानो पीढिय़ों-पीढिय़ों– का अनुभव एक-एक शब्द के प्रयोग में बोलता है। यह खास एहसास मुझे आज के किसी भी दूसरे कवि में नहीं मिलता– और इस सहजता के साथ तो नहीं ही मिलता। भावनाओं का सामाजिक परिवेश में विश्लेषण, हृदय को छूने वाला स्वर, उसके स्वर की निर्भीकता, स्वर में ओज और मर्यादा, उसका दो-टूकपन, और पूरे नाटकीय फोर्स के साथ अनेक चरित्रों के संग-सन्दर्भ चित्रण... यही कुछ है जो नागार्जुन की तगड़ी चीजों को शमशेर के लिए अत्यन्त प्रिय और महत्त्वपूर्ण बना देता है।
त्रिलोचन
अपने दूसरे सखा, कवि त्रिलोचन के बारे में शमशेर ने लिखा है कि इनमें सृजन की अपार, अकूत, अतुलनीय शक्ति है। इनमें गहराई को छूने, मर्म को सांस्कृतिक अर्थ में पकडऩे की बड़ी सहज क्षमता है। त्रिलोचन सानेट लिखने पर आएँ तो एक सिलसिले में सात सौ सानेट लिख जाएँगे, गजल की तरफ झुकें, तो पाँच सौ गजलें लिखकर ही दम लेंगे, गीतों की तरफ शुरुआत की थी, आरम्भ में तो कहते हैं कि एक लाख से अधिक लिख गये थे। त्रिलोचन के कवि की उपलब्धियाँ सहज चौंकाने वाली नहीं हैं, इसलिए कि वे अनुभूतियाँ हमारे सामान्य और व्यापक जीवन की अनेक तहों को छूकर बार-बार, और एक अजीब निर्विकार रूप से उन तहों की मिट्टी लाकर हमारी मु_ी में रखती हैं। लँगोट कसे हुए साँस बाँधकर, देर तक गोता लगाने वाला एक शान्त व्यक्ति चुपचाप आकर हमारी हथेली पर जो कुछ रख देता है, वह बड़ा सामान्य लगता है ...मगर वह 'सामान्य’ कुछ ऐसा सामान्य नहीं जैसा कि लगता है। त्रिलोचन सामान्य में ही असामान्य का दर्शक है, तो वह इसलिए कि इस असामान्य के माध्यम से पुन: सामान्य को और अच्छी तरह समझ सकें। त्रिलोचन के यहाँ सामान्य जीवन की कठोर परिस्थितियों से जूझने वाले के साथ असीम सहानुभूति है। साथ ही, बीच-बीच में गत् युगों के सन्त कवियों और समाज के उन्नायकों का बहुत सुलझा हुआ, तात्त्विक मूल्यांकन मिलेगा, विशेषकर सानेटों में। अनीति और अत्याचार पर त्रिलोचन का हृदय खुद फूँकने लगता है– मगर इसके अन्दर जो सहन-शक्ति है, कई प्रकार के विष को पी जाने की जो क्षमता है, वह इस अति साधारण लगने वाले व्यक्ति को एक असाधारण कवि बना देती है।
बकौल शमशेर बहादुर सिंह 'मैं त्रिलोचन के शिल्प और शैली पर बहुत कठोर मत रखते हुए भी, उनकी कम-से-कम सौ से अधिक चीजों को दुनिया के अच्छे-से-अच्छे शिल्पी की रचनाओं के बराबर नि:संकोच रख सकता हूँ, उनके यहाँ जो कमजोरियाँ हैं, वह सहज ही कब की दूर हो सकती थीं, मगर कई बातों की तरह भाषा और शैली पर भी उनके दृष्टिकोण में एक तरह का कट्टरपन है, एक कड़ापन। इस दिशा में मैं समझता हूँ कि उनके और मेरे बीच कहीं-न-कहीं बुनियादी मतभेद हैं। त्रिलोचन खड़ीबोली की हिन्दी भाषा और साहित्यिक अभिव्यक्ति के आधुनिक इतिहास में एक बड़ी महत्त्वपूर्ण कवि बनकर आते हैं, एक विशिष्ट दृष्टिकोण के कारण उन्होंने अपने लिए जाने या अनजाने, जो सीमाएँ निर्धारित कर ली हैं, उनको पार करके आगे बढऩा, ऐसा लगता है, उनके लिए सहज नहीं है, मगर फिर उनके लिए सम्भव क्या नहीं है।’
अज्ञेय
शमशेर ने लिखा है कि अज्ञेय को मैं चुपचाप अपना एक फेवरिट कवि मानता हूँ– और मैं अपने फेवरिट कवि के प्रति अत्यधिक कड़ी आलोचनात्मक दृष्टि भी रखता हूँ– मगर अपनी समझ के लिए, सार्वजनिक व्याख्या के लिए नहीं। अज्ञेय की कविता को प्यार करने के साथ-साथ उसको विशेष आदर से पढ़ता हूँ, उससे सीखने की कोशिश करता हूँ। शमशेर को अज्ञेय में सबसे अधिक जो चीज मोहती है, वह है उनकी व्यापक और गहरी सुरुचि, जिस पर भरोसा किया जा सकता है– और भावों की सच्ची गम्भीरता और अभिव्यक्ति में कुछ वह सादगी-सी, जो एक उस्ताद शिल्पी के यहाँ मिलती है। उनके वातावरण में एक क्लासिकल उदासी, वास्तविक शान्ति की खोज में ...बल्कि मूल्यों, ईस्थैतिक मूल्यों के उत्स की ... बल्कि उत्स से अधिक मूल्यों की मौन, तटस्थ मोहकता। ... अज्ञेय में जो चीज शमशेर को खटकती है और साथ ही आकर्षित करती रही, वह है उनका सदैव अपनी भावनाओं के प्रति सचेत रहना। कभी वह अपने को भूल नहीं सकते, खो नहीं सकते, वह बड़ी बात भी है। ऐसा आर्टिस्ट निरन्तर ऊपर उठता जाएगा– अगर प्रज्ञावान है और विनम्रता एवं क्षमा उसका आन्तरिक स्वभाव है। शमशेर के मुताबिक मौन का अर्थ शून्य नहीं– न शान्ति का अर्थ मौन है। उत्सर्ग में शान्ति है– मगर और भी कुछ है। प्रेम ...उत्सर्ग ही नहीं है। ...'होना’ का अर्थ समझना, जीवन को समझना है– मगर जीवन उसके आगे और उसके अलावा भी और कुछ है। कला में इन बातों का प्रतिबिम्ब चतुराई के बल पर, गूढ़ और सूक्ष्म योजनाओं के माध्यम मात्र से ही सम्भव नहीं है। एक सरलता अपेक्षित है, जो इन सब चतुराइयों और माध्यमों को पार करने पर ही उपलब्ध होती है। महान है उनका जन्म, जिनके संस्कार में, यह सहज ही विद्यमान हो। ऐसे जन कलाकारों और शिल्पियों की प्रतीक्षा करता है, जो अपनी महान और गहन अनुभूतियों की अभिव्यतियों में सरल-से-सरल हों।
अज्ञेय के बारे में अपना मत जाहिर करते हुए शमशेर ने लिखा है कि वे नगर के कवि हैं, किंचित ऊँचे मध्यवर्ग के सरल, भावुक, मध्यवर्ग के निष्ठावान, सन्तोषी, मित्भाषी, जिज्ञासु, सतर्क, आवश्यकता पडऩे पर साहसी, व्यक्ति के आदर्श मूल्यों के पुजारी, मगर (पूँजीवादी समाज के) चौतरफा सांस्कृतिक ह्रास की क्षुब्धता से अपने को एकाकी चिन्तन-मनन और कला साधना द्वारा 'सुरक्षित’ किए हुए। अपने अथक परिश्रम के बल पर ही सफल, मर्यादावान, तटस्थ। मुझे ऐसे कवि का व्यक्तित्व बहुत अच्छा लगता है और वह अभी कला के कई सोपान और ऊपर उठेगा, मुझे विश्वास है। यहाँ धर्म, जाति और संस्कृति में जो कुछ कुलीन और श्रेष्ठ और सुन्दर और शान्तिप्रद, उठाने वाला और पवित्र बनाने वाला है, उसकी संज्ञा एक हो जाती है। इसी संज्ञा में कलाकार की अनुभूति उपादेय, पावन और आध्यात्मिक अर्थ में मूल्यवान है। इसीलिए अज्ञेय का कवि व्यक्ति मुझे प्रिय है। जहाँ तक अज्ञेय मेरी कला-चेतना को जरा कम 'सन्तोष’ देते हैं, वहाँ दो कारण हैं। एक मेरे उर्दू के संस्कार का आग्रह और दूसरा मेरा अपना प्रयोगात्मक असन्तुलन, कला में– या रोमानी रुझान। और दोनों से अज्ञेय 'क्लासिकल’ हो जाने की हद तक बचते हैं। यही उनकी शक्ति है, और मेरी और कभी-कभी मेरे पाठक की सीमा।
मुक्तिबोध
शमशेर के मुताबिक मुक्तिबोध वैज्ञानिक कथा-साहित्य बहुत पढ़ते हैं। मुक्तिबोध निम्न मध्यवर्गीय कटु संघर्षों पर दीर्घ कालीन चिन्तन की ऊहापोह में एक विचित्र भुतहे लोक से उनकी कल्पना को भर दिया है। यह कटु संघर्ष अपने ही जीवन और परिवार के रहे हैं। अत: कल्पना का यह भुतहा (फेंटास्टिक) लोक अत्यधिक यथार्थ है, जैसा कि उनकी पंक्तियों के स्नायविक तनाव से स्पष्ट है। मुक्तिबोध के यहाँ व्यंजनाएँ हैं गूढ़ सामाजिक विश्लेषण की। विश्लेषण है वर्ग-संघर्ष के उस अंश या रूप का जहाँ निम्न मध्यवर्ग जूझता है। उसको परास्त करने वाली रूढिय़ों और शोषक शक्तियों को मुक्तिबोध प्रतीकों के रूप में खड़ा करते हैं। ये प्रतीक प्राचीन गाथाओं के टुकड़े जान पड़ते हैं, मगर इन टुकड़ों में सन्दर्भ आधुनिक होता है, मगर यह आधुनिक यथार्थ कथा का भयानकतम अंश होता है। ये भयानक अंश निम्न वर्गों का सार्वभौम शोषण है, यह है 'ब्रह्मराक्षस’। एक व्यापक विद्रूप जो व्यक्ति को आतंकित रखता है। निम्न मध्यवर्ग का शिक्षित व्यक्ति अजब-सी शूली पर लटका रहता है और भी जिन्दा रहता है नरक में जाने के लिए और अपने परिवार के साथ नरक ही भोगता है। मुक्तिबोध की लम्बी कविताओं का पैटर्न विस्तृत होता है, एक विशाल म्योरल पेंटिंग– आधुनिक प्रयोगवादी– अत्याधुनिक। जिसमें सब चीजें ठोस और स्थिर होती हैं– किसी बहुत ट्रेजिक सम्बन्ध के जाल में कसी हुई। मुक्तिबोध की कविता जो कथानक होती है, इसमें विद्रूप और क्रूर भाव रूपक को भरपूर नाटकीय बनाने के लिए आवश्यक होता है। चित्रों में जो खुरदरी अस्पष्टता आँखों में चोट-सा करती है, वह पूरी कविता में, अपने विस्तार-क्रम के कारण, रूपक भाव को कुछ बिखरा देती है। फिर भी कवि की बेपनाह नर्वस शक्ति का आभास पद-पद में मिलता है। एक चट्टानी कड़ापन, एक खुर्री नग्नता, हिंस्र चाँदनी, अपशकुनों से भरा मानव-लोक, रात का या दिन का, जिन्दगी जो विद्रूप और क्रूर व्यंग्य है। मुक्तिबोध एक अजब माक्र्सवादी व्यंग्य-रूपकार कवि हैं। चूँकि वह पेंटर और मूर्तिकार हैं अपनी कविताओं में– और उसकी शैली बड़ी शक्तिशाली, कुछ यथार्थवादी मैक्सिकन भित्ती चित्रों की-सी है, वह मुझे प्रिय है। मुक्तिबोध एक-एक चित्र को मेहनत से तैयार करते हैं और उसके अम्बार लगाते चलते हैं। एक तार-तम्य। जैसे किसी ट्रैजिक नाट्य मंच पर एक उभरती भीड़ का दृश्य, पूर्व नियोजित प्रभाव के साथ खड़ी। मुक्तिबोध समाज के शोषक शत्रु को पेंट करते हैं। उसके अहम् को उसके बाह्य आतंक को– मगर जो खोखला है और मात्र निर्जन का-सा आतंक है: मगर इसी आतंक से कवि का वर्ग-व्यक्ति पीडि़त शामिल है। मुक्तिबोध उसी पीड़ा और शाप को व्यक्त करते हैं, खुली आँखों उसे देखते, और क्रूर निर्मम शब्दों में उसे रूपाकार देते हैं। उनके यहाँ हास्य भी ग्रिम है, कठोर और भयावह।
(2010)
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