सारसुधानिधि की रचनाएँ : राजीव रंजन गिरि
हिन्दी आलोचना में उन्नीसवीं सदी के उत्तराद्र्ध के साहित्य के बारे में आजकल खूब बहसोमुबाहसा हो रहा है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और बाद डॉ. लक्ष्मी सागर वाष्र्णेय ने उन्नीसवीं सदी के उत्तराद्र्ध के साहित्य पर- जिसे भारतेन्दु युग के नाम से भी जाना जाता है– विस्तारपूर्वक लेखन किया था। इन्हीं दोनों लेखकों की मान्यताओं और लेखन को ज्यादातर लोग अपना स्रोत बनाते रहे हैं। कालान्तर में, डॉ. रामविलास शर्मा ने उस दौर के साहित्य को गम्भीरता एवं परिश्रमपूर्वक देखा-परखा। इन्होंने अठारह सौ सत्तावन की जटिल परिघटना को विश्लेषित करते हुए, 'हिन्दी नवजागरण’ की अवधारणा प्रस्तुत की। डॉ. शर्मा ने अपनी इस अवधारणा को चार चरणों में विभक्त किया। इनके मुताबिक अठारह सौ सत्तावन के साथ विकसित 'हिन्दी नवजागरण’ का दूसरा चरण भारतेन्दु-युग का साहित्य, तीसरा चरण महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनके सहयोगियों का कार्यकाल और चौथा चरण निराला का साहित्य है।
रामविलासजी द्वारा प्रस्तावित इस महत्त्वपूर्ण अवधारणा पर सवाल भी उठते रहे हैं। नामवर सिंह, वीरभारत तलवार, रमेश रावत और पुरुषोत्तम अग्रवाल ने 'हिन्दी नवजागरण’ के विभिन्न पहलुओं की आलोचना कर, इसकी सीमाओं क ो उजागर किया है। अँग्रेजी में, सुधीर चन्द्र और वसुधा डालमिया ने उन्नीसवीं सदी के उत्तराद्र्ध के साहित्य का अध्ययन कर कई मानी$खेज़ सवाल उठाये हैं। अपने अध्ययन में वीरभारत तलवार ने 'हिन्दी नवजागरण’ का नाम– अपनी ऐतिहासिक अन्तर्वस्तु को प्रकट नहीं करने के कारण– 'हिन्दी आन्दोलन’ प्रस्तावित किया है।
ऐसा नहीं है कि 'हिन्दी नवजागरण’ की सिर्फ आलोचना हुई हो। सच तो यह है व्यापक हिन्दी अकादमिक जगत में इसे स्वीकृति हासिल है। कुछेक असहमतियों के बावजूद प्रदीप सक्सेना, कर्मेन्दु शिशिर और शम्भुनाथ ने 'हिन्दी नवजागरण’ को पुष्ट किया है।
बहरहाल, डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा इस दौर क ी महत्ता रेखांकित करने के बाद, हिन्दी अक ादमिक जगत में, 'भारतेन्दु युग’ के साहित्य को फिर से देखने पर बल दिया जाने लगा। इतिहास के उस दौर के साहित्य के अध्ययन में, अव्वल तो यह परेशानी थी कि तत्कालीन रचनाकारों की सारी रचनाएँ सहज उपलब्ध नहीं थीं। उनकी रचनाएँ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी थीं और ये पत्र-पत्रिकाएँ विभिन्न पुस्तकालयों में। रख-रखाव की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होने के कारण ये पत्र-पत्रिकाएँ दीमक का आहार बन रही थीं। ऐसे में निहायत जरूरी था कि पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे इस महत्त्वपूर्ण साहित्य को संकलित-सम्पादित कर फिर से प्रकाशित कराया जाए। पर यह काम है बेहद श्रम-साध्य। कथाकार-समीक्षक कर्मेन्दु शिशिर ने पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे साहित्य को यत्नपूर्वक सहेजकर, फिर से प्रकाशित करने का, महत्त्वपूर्ण काम किया है। राधाचरण गोस्वामी, राधा मोहन गोकुल सरीखे रचनाकारों की रचनाओं के अलावा उन्नीसवीं सदी के 'सारसुधानिधि’ और बीसवीं सदी के 'मतवाला’ की रचनाओं को सम्पादित कर, इनका पक्ष सामने रखा है। इस लिहाज से कहें तो कर्मेन्दु शिशिर का यह काम अदीठ पड़े तत्कालीन साहित्य को सामने लाता है। 'हिन्दी नवजागरण’ पर राय बनाने के लिए, इसे नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता।
कर्मेन्दु शिशिर के सम्पादन में दो खंडों में प्रकाशित 'नवजागरणकालीन पत्रकारिता और सारसुधानिधि’ (अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रा.लि., दरियागंज नयी दिल्ली-2) में 'सारसुधानिधि’ के आरम्भिक डेढ़ सौ अंकों से उसके विविध स्तम्भों और विधाओं से एक चयन प्रस्तुत किया गया है। 'सारसुधानिधि’ का पहला अंक 13 जनवरी 1879 को छपा और बीच के कुछेक व्यवधानों के अलावा 1890 तक लगातार छपता रहा। पंडित सदानन्द मिश्र इसके सम्पादक थे। कर्मेन्दु शिशिर के मुताबिक, अब कोलकाता से प्रकाशित इस साप्ताहिक पत्र को प्रकाशित करने में पं. सदानन्द मिश्र के मुख्य साझीदार पत्रकार दुर्गाशंकर मित्र थे। तीसरे साझीदार थे– सदानन्द मिश्र के फुफेरे भाई पं. गोविन्दनारायण मिश्र। 'सारसुधानिधि’ के सहायक सम्पादक शम्भुनाथ मिश्र थे, जो इसकी पूरी व्यवस्था सँभालते थे। पर, पत्रिका का घाटा सामने आता गया और साझीदार अलग होते गये। इन साझीदारों के अलग होने के साल-भर बाद ही, घाटे के कारण, पत्रिका बन्द हो गयी। बन्द होने की खबर प्रकाशित होने पर उदयपुर के राजा महाराणा सज्जन सिंह ने आर्थिक मदद की। नतीजतन इसका पुनप्र्रकाशन सम्भव हो सका।
'नवजागरणकालीन पत्रकारिता और सारसुधानिधि’ के पहले खंड को सम्पादक कर्मेन्दु शिशिर ने दो हिस्सों में बाँटा है। पहले हिस्से को राजनीतिक, सामाजिक और वैचारिक लेख, आर्थिक लेख, प्रेस एक्ट, विज्ञान, प्रेरित पत्र तथा समाचारावली के रूप में विभक्त किया है। दूसरे हिस्से में साहित्य, भाषा और शिक्षा, समीक्षा तथा विज्ञापन को संयोजित किया है। इस किताब के दूसरे खंड में, सदानन्द मिश्र के 1879-83 के सम्पादकीय को संकलित किया गया है।
'सारसुधानिधि’ का पहला अंक 13 जुलाई, 1879 को प्रकाशित हुआ। पहले अंक में इस पत्रिका के प्रकाशन के पाँच प्रयोजन बताये गये हैं (1) भारतवासियों का भ्रम-संशोधन, सत् संस्कार स्थापन तथा इनके चित्त की स्थिरता और दृढ़ता सम्पादन करना (2) निज भाषा की उन्नति (3) देश-देशान्तरों की प्राचीन और नवीन, सामयिक घटना प्रकाश करके स्वदेशियों को बहुदर्शन कराना (4) भारतवासियों के मनोबल को ऊँचा उठा, उनमें तेजस्विता और ओजस्विता उत्पन्न करना और (5) जनसामान्य एवं वणिक जनों को समसामयिक आर्थिक परिदृश्य से अवगत कराकर, सत्परामर्श देना।
पहले प्रयोजन के तौर पर जिस बात को प्राथमिकता दी गयी है, क्या वह अनायास था? एक साथ संस्कृत, फारसी और अँग्रेजी पढ़े-लिखे को अलग-अलग बाइनरी में रखकर इनकी सीमाओं को उजागर करना इस पत्रिका के ऐतिहासिक महत्त्व को स्पष्ट करता है। इस पत्रिका के प्रयोजन के साथ 'आरम्भिक आधुनिकता’ के सूत्र तलाशे जा सकते हैं। पर साथ ही यह भी देखना अहम होगा कि अपने घोषित प्रयोजन को इस पत्रिका ने कितना पूरा किया? इस लिहाज से भी इसकी रचनाओं का पुन:प्रकाशन आवश्यक था।
'सारसुधानिधि’ की रचनाओं को करीब सवा सौ साल बाद प्रकाशित करने की जरूरत पर प्रकाश डालते हुए कर्मेन्दु शिशिर ने लिखा है, ''जब भी कोई समाज या देश वैचारिक संकट महसूस करता है और उसे आगे का कोई रास्ता नहीं सूझता, तो वह अपने निकटतम अतीत को टटोलता है। किसी भी समाज या देश का वर्तमान अपने अतीत से पूरी तरह विच्छिन्न नहीं होता, इसलिए वर्तमान के ढेर सारे सूत्र वहाँ से जुड़े होते हैं। लेकिन यह भी तय है कि हम इतिहास को लाश की तरह पीठ कर लादकर आगे नहीं बढ़ सकते, न ही हम अतीत को इतिहास में खड़े होकर देखते हैं। हम हमेशा मौजूदा समय में ही खड़े होकर, अतीत का आकलन करते हैं। अपने मौजूदा समय-समाज के सरोकारों के आलोक में ही आलोचनात्मक विवेक से अतीत का संग्रह-त्याग करते हैं। इन्हीं अर्थों में हमारा नवजागरण एक आईने की तरह है। ऐसा आईना, जिसमें हम आज के गतिरोधों की परख-पहचान कर बदलाव के सूत्रों की तलाश भी कर सकते हैं। हम यह भी समझ सकते हैं कि हमारे पूर्वजों ने अपने समय में किस तरह संघर्ष किया और अपनी समस्याओं से जूझने में किस हद तक कारगर हुए। साथ ही हम बेहतर समाज के निर्माण में अपने मौजूदा संघर्षों की परख-पहचान कर, चूक और चतुराई समझ सकते हैं। इस तरह पूर्वग्रह मुक्त रहने पर हमें आत्मालोचना में नवजागरण साहित्य से काफी मदद मिल सकती है।’’ उम्मीद है 'सारसुधानिधि’ के शेष अंकों से भी रचनाएँ संकलित-सम्पादित करने की दिशा में सुधी विद्वानों का ध्यान जाएगा।
(2010)
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