राधा के वस्तुकरण की प्रक्रिया : राजीव रंजन गिरि
पितृसत्तात्मक वैचारिक सरणियाँ स्त्री को वस्तु बनाने की कोशिश करती रही हैं। विभिन्न धार्मिक, साहित्यिक, राजनीतिक 'टेक्स्ट’ में इसे देखा जा सकता है। ऊपरी तौर पर सहज दिखने वाली इन पुस्तकों के पाठों में अन्तर्निहित विचारों को स्त्रीवादी अध्येताओं ने विश्लेषित कर बताया है कि ये विचार स्त्री को वस्तु में तब्दील करने में किस कदर सक्रिय रहे हैं। स्त्रीवादी बुद्धिधर्मियों ने यह भी बताया है कि न सिर्फ उक्त 'टेक्स्ट’ के जरिये स्त्री-वस्तुकरण की प्रक्रिया जारी रही बल्कि इसके व्याख्याकारों ने भी इसे बल प्रदान किया। इन व्याख्याकारों में विभिन्न विचारधारा से वास्ता रखने वाले लोग शामिल हैं। अलग-अलग विचारधारा से ताल्लुकात के बावजूद स्त्री के सन्दर्भ में इन सबकी व्याख्याएँ कमोबेश एक-सी हैं। इन व्याख्याकारों ने उक्त ग्रन्थों, किस्मों की व्याख्या कर, उनके स्त्री-चरित्रों को ग्लैमराइज कर स्त्री-विरोधी मानसिकता पर पर्दा डालने का काम किया। सम्भव है, यह उनकी दृष्टिगत कमजोरी के कारण हुआ हो। परन्तु कई दफा ऐसा सायास भी किया जाता है।
स्त्रीवादी समीक्षक अनुराधा ने 'फिलहाल’, मई (सम्पादक- प्रीति सिन्हा, एम-42/2, श्रीकृष्ण नगर, पटना-1) में राधा के चरित्र के जरिये स्त्री-वस्तुकरण-प्रक्रिया की पड़ताल की है। इनके मुताबिक, 'राधा’ का नाम सामने आते ही एक ऐसी स्त्री सामने आती है जो ब्रज की होकर भी ब्रज की स्त्रियों से कहीं भी मेल नहीं खाती। बिना आत्मा की ऐसी स्त्री जो मात्र 'देह’ तक सिमटकर रह गयी है और जिसका बिना पूछे जिस काव्यशास्त्रीय सन्दर्भ में चाहो प्रयोग कर लो। राधा को 'श्रीराधा’ और 'राधा’ दोनों बनाने के प्रयासों ने अन्तत: ऐसी प्रक्रिया को अंजाम दिया जो स्त्री को वस्तु बनाकर अपने लिए उपयोग में लाने में सफल रही। राधा की निर्मिति में मोटे तौर पर तीन पक्षों की भूमिका रही है। सदियों से साहित्यकार के मन की रचना, कथित मध्ययुग के धार्मिक आचार्य, दार्शनिक और इसे व्याख्यायित करने वाले आधुनिक आलोचकों ने मिलकर राधा को गढऩे का काम किया है। अनुराधा, एक-दूसरे से परस्पर गहरे रूप में जुड़े इन तीनों को मूलत: पितृपक्षीय मानती हैं और इस रूप में तैयार राधा के निहितार्थ को सामने लाकर, इनके एजेंडे को स्पष्ट करती हैं। शुरुआती दौर में, राधा की चर्चा एकाध पंक्ति, एकाध श्लोक, फिर दो-चार श्लोक और नवीं-दसवीं सदी में, एक स्वतन्त्र-कथा (भेज्जल कवि रचित राधा विप्रलम्भ नाटक) के रूप में सामने आती है। बारहवीं सदी में, राधा के विरह की करुण-कथा जयदेव के 'गीत गोविन्द’ में मिलती है। दिलचस्प है कि कृष्ण-कथा और कृष्ण के चरित्र को सामने लाने वाले 'भागवत पुराण’ में राधा कहीं नहीं है। वल्लभाचार्य और तत्कालीन कृष्ण-भक्ति सम्प्रदायों के दौर से राधा का चरित्र बड़े पैमाने पर मिलना शुरू होता है।
राधा शब्द की चर्चा जिन शुरुआती ग्रन्थों में मिलती है, वहाँ इस शब्द का प्रयोग व्यक्तिवाचक नहीं है। बल्कि इसका प्रयोग बहुवचन और जातिवाचक संज्ञा के तौर पर मिलता है। आखिरकार यह बहुवचन और जातिवाचक संज्ञा बदलकर क्यों व्यक्तिवाचक संज्ञा बन गयी? इसके सांस्कृतिक और राजनीतिक आशय क्या हैं? 'राधा’ के विकास की चर्चा करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने दो कयास लगाये हैं। एक, राधा आभीर जाति की प्रेमदेवी रही होगी जिसका रिश्ता बालकृष्ण से रहा होगा। दूसरा, राधा इसी देश की किसी आर्यपूर्व जाति की प्रेमदेवी रही होगी। बाद में आर्यों में इनकी प्रधानता हो गयी होगी और कृष्ण के साथ इनका सम्बन्ध जोड़ दिया गया होगा। राधा के चरित्र का अध्ययन करने वाले डॉ. शशिभूषण दासगुप्ता राधावाद को शक्तिवाद के विकास का नतीजा मानते हैं। साथ ही यह भी कहते हैं कि प्राकृत नायिका ही राधा में रूपान्तरित हुई। अनुराधा ने ठीक पूछा है कि आखिर राधा के विकास के पीछे कौन-सी शक्ति काम कर रही है? साथ ही संस्कृत भाषी परम्परा को अपने शक्तिवाद के लिए प्राकृतभाषी आभीर स्त्री (नायिका) को देवी बनाने या देवी के रूप में ग्रहण करने या देवी के रूप में विकसित करने की कौन-सी जरूरत थी? यह भी कि राधा-प्रसंग में विरह ही एकमात्र भाव है जो साहित्यकारों का लक्ष्य रहा है। ऐसे में, राधा के विरह में आखिर क्या परिभाषित करने की परिकल्पना कवियों के मन में व्याप्त रही?
भक्तिकाल के दौरान राधा के विकास में निम्बकाचार्य और वल्लभाचार्य का विशेष योगदान है। लेकिन साहित्य में राधा के बारे में प्रभावशाली रचनाएँ वल्लभ सम्प्रदाय का ही परिणाम रही, खासकर 'अष्टछाप’ का। वल्लभाचार्य भी उसी दक्षिण भारत से आते हैं, जहाँ 'भागवतपुराण’ की रचना हुई मानी जाती है। उस दक्षिण में कहीं भी राधा की आराधना नहीं पायी जाती। उत्तर भारत में भी राधा का बारहवीं सदी से पुराना कोई ऐसा रूप नहीं मिलता जहाँ वह पूजनीय हों। असल में, भक्ति काव्य से पहले जितने उदाहरण राधा के पाये जाते हैं उनमें राधा को कामकेलि कुपिता राधा के तौर पर चित्रित किया गया है। कृष्ण काव्य-परम्परा में राधा का विकास, ब्रज में राधा, भक्तियुग में राधा का प्रभाव, कल्पनालोक का सृजन, धर्मसत्ता की स्थापना, प्रायोजित विरह, सूर की राधा का अध्ययन करने के बाद अनुराधा इस नतीजे पर पहुँचती हैं कि आधुनिक हिन्दी आलोचना में कृष्णभक्ति और राधा-सम्बन्धी जो अध्ययन देवीशंकर अवस्थी और मैनेजर पांडेय सहित अन्य लोगों के द्वारा किये गये हैं, उनमें सामान्य रूप में राधा को भक्त और भक्ति के दायरे में ही देखा गया है। ये सभी, प्रकारान्तर से, राधा के व्यक्तित्व के अवमूल्यन के हिमायती ही हैं। राधा के रूप में आदर्श भक्त की परिकल्पना सबके केन्द्र में बनी रही है। साहित्य को सामाजिक अध्ययनों के नजदीक ले जाने वाले अध्ययनों से यह आशा थी कि वे इस परिकल्पना से अलग रवैया अख्तियार करेंगे। पर वे इस आशा के विपरीत निकले। असल में, राधा का विकास पितृ पक्षीय सरोकारों की एक ऐतिहासिक जरूरत जैसी लगती है, जिसके बिना वे स्त्री का उपयोग अपनी सत्ता और वर्चस्व को बनाए रखने के लिए शायद नहीं कर पाते।
(2009)
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