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भिखारी ठाकुर की कला : राजीव रंजन गिरि

 भिखारी ठाकुर की कला : राजीव रंजन गिरि

'भोजपुरी’ को भले ही संविधान की आठवीं अनुसूची में मान्यता नहीं मिली है और साहित्य अकादेमी, भोजपुरी के रचनाकारों को पुरस्कृत-सम्मानित नहीं करती है, लेकिन इस सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि भोजपुरी दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी द्वारा बोली जाने वाली लोकभाषा (बोली) है। भिखारी ठाकुर इसी भाषा के श्रेष्ठ लोक-कलाकार थे। इनकी एक 'नाच मंडली’ थी। जहाँ इनकी मंडली द्वारा 'नाच’ प्रस्तुत किया जाता था, बकौल राहुल सांकृत्यायन, दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह हजार की संख्या में दर्शक आते थे। यह खुशी की बात है कि साहित्य अकादेमी ने 'भारतीय साहित्य के निर्माता’ शृंखला के अन्तर्गत भिखारी ठाकुर के जीवन और रचना-संसार पर मोनोग्राफ छापा है। इसे भोजपुरी के एक चर्चित साहित्यकार तैयब हुसैन 'पीडि़त’ ने लिखा है।

भिखारी ठाकुर का जीवन और कला-कर्म साहित्यकारों को आकर्षित करता रहा है। कथाकार संजीव ने इन पर 'सूत्रधार’ उपन्यास लिखा है। नाटककार हृषिकेश सुलभ ने 'बटोही’ और कथाकार मधुकर सिंह ने 'कुतुब बाजार’ नाटक लिखा है। इन नाटकों की सफल प्रस्तुति भी हो चुकी है। पिछले साल धनंजय सिंह ने 'भोजपुरी प्रवासी श्रमिकों की संस्कृति और भिखारी ठाकुर का साहित्य’ शीर्षक शोध-पत्र लिखा था। इस शोध-पत्र को वी.वी. गिरि राष्ट्रीय श्रम संस्थान, नोएडा ने प्रकाशित किया है। इन सारी रचनाओं के  जरिये भिखारी ठाकुर और उनके देश-काल की तस्वीर उभरती है। भिखारी ठाकुर के नाच की लोकप्रियता का आलम यह है कि 'बिदेसिया’ आज एक शैली बन गयी है। भिखारी ठाकुर ने बारह नाटकों की रचना की थी, जिसे वे अपने नाच में प्रस्तुत करते थे। 'बिदेसिया’, 'विधवा-विलाप’, 'बेटी-वियोग’, 'भाई-विरोध’, 'कलयुग-प्रेम’, 'गबर-घिचोर’, 'पुत्र-वध’, 'बिरहा-बहार’, 'ननद-भउजाई’, 'गंगा-स्नान’, 'राधेश्याम बहार’ और 'नकल भाँड़ के नेटुआ’, इन नाटकों में 'बिदेसिया’ के बाद 'बेटी-वियोग’ और 'गबर घिचोर’ को सर्वाधिक सराहना मिली थी, जिसे गाँव के बुजुर्ग लोग आज भी याद करते हंै।

इतिहास के जिस दौर में भिखारी ठाकुर ने 'नाच मंडली’ बनायी, तब इस पेशे और कला-विधा को हिकारत के भाव से देखा जाता था। कथित बड़ी जाति के लोगों का इस मंडली में शामिल होने का सवाल नहीं उठता था। भिखारी ठाकु र जिस नाई जाति में पैदा हुए थे, उसमें भी उनकी काफी जग-हँसाई हुई। बावजूद इसके इस सांस्कृतिक नायक और इनके संगी-साथियों ने अपने भीतर के जज्बे को नहीं दबाया। नाच के प्रति प्रबल अनुराग का नतीजा था कि उस विपरीत माहौल में, कथित बड़ी जाति में पैदा हुए कुछ लोग भी भिखारी ठाकुर की मंडली में शामिल हुए। यह रवैया सिर्फ भोजपुरी भाषी समाज में ही कायम नहीं था। उन्नीसवीं सदी के 'थियेटर’ पर शोध करने वाले विद्वानों ने इसे बांग्ला, मराठी आदि सभी भाषाई इलाके में पाया है। आलम इतना बुरा था कि कोठे पर नाचने वाली नर्तकियों ने भी शुरुआती दौर में नाटक में भाग लेना पसन्द नहीं किया था। यही वजह थी कि शुरुआती नाटकों में महिला का किरदार भी पुरुष निभाते थे। अनेक नाच मंडली में तो आज भी यह परम्परा दिखती है।

भिखारी ठाकुर की औपचारिक पढ़ाई बहुत मामूली हुई थी। पर प्रतिभा गजब की थी। अपनी गहरी संवेदना के जरिये उन्होंने तत्कालीन स्त्रियों की पीड़ा महसूस की थी। रोजगार के लिए पति 'बिदेस’ (विदेश नहीं) चला जाता है। नव-विवाहिता युवती गाँव में अकेली रहती है। पति वहाँ दूसरी स्त्री के साथ रहता है। बाद में लौटता है। इस बीच के स्त्री-जीवन की यातना भिखारी ठाकुर दिखाते थे। भोजपुरी इलाके के  लिए उस जमाने में 'बिदेस’ कोलकाता था।

आज भी ऐसे कई भोजपुरी लोकगीत मिलते हैं, जिनमें स्त्रियाँ अपने पति को कोलकाता जाने से रोकती हैं। बंगाल की जादूगरनियों का वर्णन करने वाले इन लोकगीतों में स्त्रियों की मार्मिक आह भरी मिलती है। उन्हें डर सताता है कि उनका 'सवाँग’ जाकर लौट नहीं पाएगा। 'बेटी-वियोग’ नाटक को लोगों ने 'बेटी-बेचवा’ नाम से याद किया। किन हालात में एक माँ-बाप अपनी बेटी को बेचते होंगे इसकी कल्पना की जा सकती है। प्रेमचन्द के कालजयी उपन्यास 'गोदान’ के मुख्य पात्र होरी ने भी अपनी छोटी बेटी को बेचा था। उस समय उसकी ऐसी स्थिति थी मानो अपना की थूक होरी के चेहरे पर पड़ रहा हो। भिखारी ठाकुर के नाटकों में एक बात समान है- तत्कालीन समस्याओं को विषय बनाना। उनके करीब-करीब सभी नाटकों में स्त्रियों के जीवन के विभिन्न पहलुओं से जुड़ी समस्याओं को उठाया गया है। भले ही भिखारी ठाकुर को यह बोध नहीं होगा कि ये समस्याएँ किन जटिल दबावों का परिणाम हैं। लेकिन इन सारी ताकतों ने मिलकर स्त्री-जीवन को पराधीन बनाया है, इसे वे बखूबी समझ रहे थे। उनकी नाच मंडली अपने दर्शकों के बीच इस पराधीनता के सवाल को उठाती थी। यही उसकी सबसे बड़ी ताकत थी। इन्हीं वजहों से उन नाटकों की तत्कालीन समाज में महत्ता थी और आज भी उसकी अर्थवत्ता बनी हुई है। इस सन्दर्भ में देखें तो स्वाधीनता-आन्दोलन को भिखारी ठाकुर अपने तरीके से साझा करते दिखेंगे। कवि केदारनाथ सिंह ने भिखारी ठाकुर पर लिखी अपनी कविता में कहा है–

''और अब यह बहस तो चलती ही रहेगी

कि नाच का आजादी से रिश्ता क्या है

और अपने राष्ट्रगान की लय में वह ऐसा क्या है

जहाँ रात-बिरात जाकर टकराती है

बिदेसिया की लय।’’

(2010)

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