अस्मितावादी अतिचार से मुखामुखम : राजीव रंजन गिरि
हिन्दी आलोचना में सर्वाधिक बहस-मुबाहिसा भक्ति-आन्दोलन के सन्दर्भ में हुआ है। करीब-करीब सभी महत्त्वपूर्ण आलोचकों ने भक्ति-आन्दोलन की प्रकृति और किसी-न-किसी भक्त कवि को व्याख्यायित करने की कोशिश की है। इन सभी व्याख्याओं का खास सांस्कृतिक-राजनीतिक आशय है। आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने भक्ति-आन्दोलन के चरित्र, खासकर कबीर की कविता पर विचार किया है। इनमें कबीर के सम्बन्ध में प्रचलित मान्यताओं से मुखामुखम कर नयी स्थापना प्रस्तुत की है। इसी क्रम में डॉ. अग्रवाल ने कबीर की रचनाओं का एक संचयन 'कबीर : साखी और सबद’ तैयार किया है। इसमें विषय के मुताबिक कबीर की कविताओं को नौ खंडों में पेश किया गया है। गौरतलब है कि इस संकलन में सम्पादक ने अन्य कई लोगों की तरह अपनी सुविधा और सोच के मुताबिक कबीर की 'परेशान’ करने वाली कविताओं को 'प्रक्षिप्त’ करार देकर हटाया नहीं है। कबीर ही नहीं लगभग सभी भक्त कवियों की पॉलिटिकली करेक्ट दिखाने के लिए कई आलोचकों/ संकलनकर्ताओं ने उनकी 'परेशान’ करने वाली कविताओं को किसी पुराने कवि का भावानुवाद या प्रक्षिप्त बताकर व्याख्या के लिए सुविधाजनक रास्ता अख्तियार किया है।
इस संकलन की विस्तृत और महत्त्वपूर्ण भूमिका में पुरुषोत्तम अग्रवाल ने, कबीर के बारे में मौजूद मान्यताओं से तार्किक जिरह की है। पूर्ववर्ती आलोचकों ने कबीर को प्राथमिक तौर पर कवि नहीं माना था। मिसाल के तौर पर हिन्दी के दो बेहद महत्त्वपूर्ण आलोचकों– जिन्होंने हिन्दी आलोचना का ढाँचा तैयार किया है– की मान्यताओं को देखा जा सकता है। दिलचस्प ढंग से कबीर के महत्त्व को कमतर मानने वाले आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और कबीर की रचनाओं की विशिष्टताओं को रेखांकित कर हिन्दी काव्य-परम्परा में, उनके महत्त्व को स्थापित करने वाले आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इस मुद्दे पर करीब-करीब एक मत हैं। आचार्य शुक्ल को कबीर की कविता उपदेश देती प्रतीत होती थी, भावोन्मेष करती नहीं। जरा सोचें, कविता अगर भावोन्मेष न करे तो उसका क्या मतलब? आचार्य शुक्ल की कबीर सम्बन्धी कई मान्यताओं का खंडन करने वाले आचार्य द्विवेदी के लिए कबीर 'वाणी के डिक्टेटर’ थे, जो भाषा को दरेरा देकर जैसा चाहे मोड़ सकते थे; पर उनकी कविता भक्ति-साधना का 'बाई प्रोडक्ट’ भर थी, फोकट का माल। पुरुषोत्तम अग्रवाल ने इन सारी मान्यताओं से जिरह करते हुए, कबीर को प्राथमिक तौर पर कवि मानने का इसरार किया है। कबीर के साथ सिर्फ यही विडम्बना नहीं है कि पूर्ववर्ती आलोचकों ने उन्हें प्राथमिक तौर पर कवि नहीं माना है। बल्कि उन्हें 'धर्म प्रवर्तक’ के तौर पर भी देखने की कोशिश हुई, जो अब भी जारी है। लिहाजा, कबीर की रचनाओं में निहित चेतना के लिए संकट कबीरपन्थी ही नहीं ऐसे व्याख्याकार भी हैं। कबीरपन्थियों का मानना है कि कबीर ने खुद एक पन्थ की स्थापना की थी।
ऐतिहासिक रूप से भले ही इसका कोई प्रमाण न मिले पर कबीरपन्थी और कट्टर अस्मितावादियों को इससे क्या फर्क पड़ता है!
कबीर की कविताओं में स्त्रियों की निन्दा से जुड़ी बातें कबीर ही नहीं भक्ति-काल के अन्य कई कवियों में भी मिलती हैं। कई आलोचकों ने ऐसी मान्यताओं को 'डिफेंड’ करने के लिए इसे 'रेशनलाइज’ भी किया है। डॉ. अग्रवाल ने ऐसा 'शॉर्ट-कट’ रास्ता नहीं अपनाया है। इन्होंने संवेदना और संस्कार के परस्पर - संघर्ष से उत्पन्न अन्तर्विरोधों को नोट करते हुए कबीर की नारी-सम्बन्धी मान्यताओं की व्याख्या की है। भूमिका में डॉ. अग्रवाल ने लिखा है कि ''कबीर की नारी-सम्बन्धी मान्यताओं को डिफेंड करने की बजाय सवाल यह पूछना चाहिए कि यदि नारी- 'परायी’ या 'अपनी’ नर्क की आग जैसी ही है तो अपने निर्गुण राम को इस आग में झोंकने की क्या जरूरत है? स्वयं इस आग का रूप धारण करने की, औरत की आवाज में अपने प्रेम को कहने की क्या जरूरत है?’’ काबिलेगौर है कि कबीर ने अनेक रचनाओं में खुद को स्त्री और ईश्वर को पुरुष मानकर विरह का बेहद मार्मिक पद रचा है। डॉ. अग्रवाल ऐसी मान्यताओं की व्याख्या करते हुए नयी और विचारोत्तेजक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। ''नारी मात्र से बचने का उपदेश देने वाले कबीर का स्वयं नारी-रूप धारण करना उनका व्यक्तिगत अन्तर्विरोध मात्र नहीं है। इसका सम्बन्ध उनके परिवेश से है। नारी-निन्दा का संस्कार जिस कॉमन सेंस को व्यक्त करता है, नारी-रूप धारण की विधि उसी कॉमन सेंस का प्रतीकात्मक प्रतिवाद है। यह प्रतिवाद भी कबीर के परिवेश में, लोक-काव्य संवेदना में मौजूद था।’’
इस विचारोत्तेेजक व्याख्या को पढऩे पर जेहन में एक सवाल उठता है कि क्या कबीर जैसे निर्गुणपन्थी सन्त स्त्री-पुरुष को समान मानते थे? अगर स्त्री-पुरुष एक समान महत्त्व के हैं तो ऐसी सभी कविताओं में मेटाफर के तौर पर भक्त को स्त्री ( प्रेमिका या पत्नी ) और ईश्वर को पुरुष ( पति या प्रेमी ) बनाकर क्यों प्रस्तुत करते हैं? जबकि सूफी संवेदना में ईश्वर को स्त्री और भक्त को पुरुष के तौर पर देखने का रिवाज मौजूद था। कबीर के इस विलोमी चयन का सांस्कृतिक आशय क्या है? कबीर के किसी पद में यह 'मेटाफर’ बदलता क्यों नहीं?
बहरहाल, 'कबीर : साखी और सबद’ में डॉ. अग्रवाल ने मौजूदा दौर में कबीर को पढऩे-समझने के लिए बेहतरीन प्रस्तावना प्रस्तुत की है, जो कबीर के हो रहे कुपाठों का खंडन करती है और नये पाठ के लिए राह भी दिखाती है।
(2009)
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें