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समकालीन कविता में 'या’

 समकालीन कविता में 'या’ :  राजीव रंजन गिरि 

कवि-कथाकार शैलेय का कविता-संग्रह चौंकाता है, अपने नाम से। देखते ही लगा यह भी कोई नाम है कविता-संग्रह का! 'या’ शीर्षक यह संग्रह अन्तिका प्रकाशन से छपा है। इस संग्रह में कई बेहतरीन कविताएँ हैं। शैलेय को बिल्कुल ही कम शब्दों में अपनी बात कहने का हुनर हासिल है। इस संग्रह की शीर्षक कविता 'या’ को देखें- 'हताश लोगों से / बस / एक सवाल / हिमालय ऊँचा / या / बछेन्द्रीपाल?’ शैलेय की कविताएँ किसी भी तरह की हताशा के बरअक्स उत्साह और सपने से रची गयी हैं।

कवि वीरेन डंगवाल ने बिल्कुल ठीक कहा है कि संग्रह की लोकप्रिय कविता 'या’ अपनी कुल जमा पाँच अति सामान्य पंक्तियों में एक साथ सवाल के बहाने कई जवाब और कई चुनौतियों को उठाती है और पाठक को ऐसी तार्किक-गरिमामय आश्वस्ति प्रदान करती है जिसका छिछली आशावादी, सरलीकृत, बाज़ारटेकू, प्रतिरोधी कविताओं में कोई सानी नहीं है। इन पंक्तियों में केवल वाग्वैदग्ध्य नहीं। उनके मानवीय सामाजिक अर्थ का वृत्त कविता के समाप्त होने के बाद भी निरन्तर बढ़ता जाता है और राजनीतिक आशयों समेत अर्थ के कई धरातल छूता है। संग्रह की छोटी-छोटी पर अच्छी कविताओं क ो पढ़कर लगा, क्या सुन्दर नाम है कविता-संग्रह का 'या’।

(2009)


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