प्रेमचन्द का प्रयोजन : राजीव रंजन गिरि
उन्नीस सौ छतीस में प्रगतिशील लेखक संघ के बनने से पहले लेखकों का कोई संगठन नहीं था। उसके पहले किसी-किसी मुद्दे पर कुछेक लेखक एकजुट होते थे, पर यह एकजुटता संगठन का रूप नहीं ले पाती थी। मसलन, भाषा के सवाल पर उन्नीसवीं सदी के हिन्दी लेखकों का एका देखा जा सकता है। परन्तु यह एका संगठन नहीं था। उस दौर में, किसी खास लेखक के व्यक्तित्व से प्रभावित रचनाकारों का एक अनौपचारिक समूह दिखता है। उदाहरण के तौर पर हरिश्चन्द्र, जिन्हें लोगों ने भारतेन्दु कहकर सम्मान दिया था, के आभा मंडल से प्रभावित लेखकों का एक समूह था– जिसे 'भारतेन्दु मंडल’ के नाम से जानते हैं। जैसा कि इसके नाम से ही जाहिर है, यह संगठन नहीं था।
संगठन एक आधुनिक अवधारणा है। 'प्रगतिशील लेखक संघ’ इस मायने में एक संगठन था। इसके उदय को भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के व्यापक सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है। इसके जन्म का भौतिक आधार राष्ट्रीय आन्दोलन ने ही तैयार किया था। पेरिस के 'पेन कान्फ्रेन्स’ की तर्ज पर सज्जाद जहीर, मुल्क राज आनन्द सरीखे लोगों ने, लन्दन में 'प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन’ का गठन किया। इसलिए आरम्भ में ज्यादातर लोग इसे पीडब्ल्यूए ही कहते थे। बाद में इसका हिन्दी तरजुमा प्रगतिशील लेखक संघ किया गया।
शुरू में इलाहाबाद इसका केन्द्र बिन्दु था। पहला सम्मेलन हुआ– लखनऊ में। 1936 में सम्पन्न इस पहले सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए प्रेमचन्द आमन्त्रित थे। उस मौके पर प्रेमचन्द ने जो अध्यक्षीय भाषण किया, वह 'साहित्य का उद्देश्य’ नाम से प्रकाशित है। इस निबन्ध में प्रेमचन्द ने साहित्य के विभिन्न आयामों के बारे में अपना पक्ष स्पष्ट किया है। प्रेमचन्द के विचारों को जानने के लिहाज से, यह निबन्ध महत्त्वपूर्ण है। जाहिर तौर पर इस निबन्ध में तत्कालीन देश-काल में चल रहे साहित्यिक बहस-मुबाहिसों की छाया है।
साहित्य में भाव और भाषा में कौन प्राथमिक है, इसे लेकर अलग-अलग राय मिलते हैं। प्रेमचन्द के मुताबिक 'भाषा साधन है, साध्य नहीं।’ कारण कि अब हमारी भाषा ने वह रूप प्राप्त कर लिया है कि हम भाषा से आगे बढ़कर भाव की ओर ध्यान दें। प्रेमचन्द मानते थे कि उर्दू और हिन्दी का जो आरम्भिक साहित्य मौजूद है, उसका उद्देश्य विचारों और भावों पर असर डालना नहीं, केवल भाषा का निर्माण करना था। भाषा का निर्माण भी एक महत्त्वपूर्ण कार्य था क्योंकि जब तक भाषा एक स्थायी रूप न प्राप्त कर ले, उसमें विचारों और भावों को व्यक्त करने की शक्ति कहाँ से आएगी? स्थायी भाषा के तौर पर प्रेमचन्द ने हिन्दुस्तानी का नाम लिया और हिन्दुस्तानी के निर्माण को 'जाति पर एहसान’ माना। साथ ही, इसके निर्माणकर्ताओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की। कहने की जरूरत नहीं कि प्रेमचन्द हिन्दुस्तानी के समर्थक थे। हिन्दुस्तानी हिन्दी और उर्दू के बीच की एक साझा भाषा है। प्रेमचन्द ने इसका नाम लेकर तत्कालीन भाषायी राजनीति में अपना पक्ष साफ किया। भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी हिन्दुस्तानी के प्रबल समर्थक थे। प्रसंगवश, भाषा का मसला ही वह कारण था कि गांधीजी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन की सदस्यता से इस्तीफा दिया।
भाषा पर राय जाहिर करने के बाद प्रेमचन्द ने बताया कि साहित्य क्या है? राष्ट्रवाद के उस दौर में इन्होंने कहा कि तिलस्माती कहानियों, भूत-प्रेत की कथाओं और प्रेम-वियोग के आख्यानों से किसी जमाने में हम भले ही प्रभावित हुए हों, पर उनमें हमारे लिए बहुत कम दिलचस्पी है। इसलिए साफ तौर पर इन्होंने कहा कि जो कुछ लिख दिया जाए, वह सबका सब साहित्य नहीं है। साहित्य उसी रचना को कहेंगे, जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गयी हो, जिसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित एवं सुन्दर हो और जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो। और साहित्य में यह गुण पूर्ण रूप से उसी अवस्था में उत्पन्न होता है, जब उसमें जीवन की सच्चाइयाँ और अनुभूतियाँ व्यक्त की गयी हों।
बकौल प्रेमचन्द साहित्य की सर्वोत्तम परिभाषा 'जीवन की आलोचना है। चाहे वह निबन्ध के रूप में हो, चाहे कहानियों के, या काव्य के, उसे हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या करनी चाहिए।’ प्रेमचन्द ने कहा कि साहित्य में हमने जिस युग को अभी पार किया है, उसे जीवन से कोई मतलब न था। हमारे साहित्यकार कल्पना की एक सृष्टि खड़ी करके उसमें मन-माने तिलस्म बाँधा करते थे। कहीं फिसान-ए-अजायब की दास्तान थी, कहीं बोस्ताने ख्याल की और कहीं चन्द्रकान्ता सन्तति की। इन आख्यानों का उद्देश्य केवल मनोरंजन था और हमारे अद्भुत-रस-प्रेम की तृप्ति, साहित्य का जीवन से कोई लगाव है, यह कल्पनातीत था। कहानी-कहानी है, जीवन-जीवन। दोनों परस्पर विरोधी वस्तुएँ समझी जाती थीं।
कथा-साहित्य के हालात बताने के बाद प्रेमचन्द ने कविता के बारे में अपनी राय जाहिर की। क्या हिन्दी और क्या उर्दू– कविता में दोनों की एक ही हालत थी। कवियों पर व्यक्तिवाद का रंग चढ़ा हुआ था। इन कविताओं में अभिव्यक्त प्रेम का आदर्श वासनाओं को तृप्त करना था और सौन्दर्य का आँखों को। इन्हीं शृंगारिक भावों को प्रकट करने में कवि मंडली अपनी प्रतिभा और कल्पना के चमत्कार दिखाया करती थी। उस समय साहित्य और काव्य के विषय में जो लोक-रुचि थीं, उसके प्रभाव से अलिप्त रहना सहज न था। सराहना और कद्रदानी की हवस तो हर एक को होती है। कवियों के लिए उनकी रचना ही जीविका का साधन थी। और कविता की कद्रदानी रईसों और अमीरों के सिवाय और कौन कर सकता है? हमारे कवियों को साधरण जीवन का सामना करने और उसकी सच्चाइयों से प्रभावित होने के या तो अवसर ही थे, या हर छोटे-बड़े पर कुछ ऐसी मानसिक गिरावट छाई हुई थी कि मानसिक और बौद्धिक जीवन रह ही न गया था।
प्रेमचन्द ने पूरी साफगोई से कहा कि काव्य और साहित्य का उद्देश्य हमारी अनुभूतियों की तीव्रता को बढ़ाना है, पर मनुष्य का जीवन केवल स्त्री-पुरुष-प्रेम का जीवन नहीं है। क्या वह साहित्य, जिसका विषय शृंगारिक मनोभावों और उनसे उत्पन्न होने वाली विरह व्यथा, निराशा आदि तक ही सीमित हो– जिसमें दुनिया और दुनिया की कठिनाइयों से दूर भागना ही जीवन की सार्थकता समझी गयी हो, हमारे विचार और भाव सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है। प्रेमचन्द ने अपनी इस आलोचना का कारण बताते हुए कहा कि ' शृंगारिक मनोभाव, मानव-जीवन का एक अंग मात्र है और जिस साहित्य का अधिकांश इसी से सम्बन्ध रखता हो, वह उस जाति और उस युग के लिए गर्व करने की वस्तु नहीं हो सकता और न उसकी सुरुचि का ही प्रमाण हो सकता है।’
प्रेमचन्द बदलते समय को बारीकी से देख रहे थे। इसलिए उन्होंने महसूस किया कि हमारी साहित्यिक रुचि बड़ी तेजी से बदल रही है। अब साहित्य केवल मन-बहलाव की चीज नहीं है, मनोरंजन के सिवाय उसका और भी कुछ उद्देश्य है। अब केवल नायक-नायिका के संयोग-वियोग की कहानी नहीं सुनता– किन्तु जीवन की समस्याओं पर भी विचार करता है और उन्हें हल करता है। अब वह स्फूर्ति या प्रेरणा के लिए अद्भुत आश्चर्यजनक घटनाएँ नहीं ढूँढ़ता और न अनुप्रास का अन्वेषण करता है, किन्तु उसे उन प्रश्नों से दिलचस्पी है, जिनसे समाज या व्यक्ति प्रभावित होते हैं। उसकी उत्कृष्टता की वर्तमान कसौटी अनुभूति की वह तीव्रता है, जिससे वह हमारे भावों और विचारों में गति पैदा करता है।
प्रेमचन्द को यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं थी कि 'मैं और चीजों की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तौलता हूँ। निस्सन्देह कला का उद्देश्य सौन्दर्य वृत्ति की पुष्टि करना है और वह हमारे लिए आध्यात्मिक आनन्द की कुंजी है, पर ऐसा कोई रुचिगत मानसिक तथा आध्यात्मिक आनन्द नहीं, जो अपनी उपयोगिता का पहलू न रखता हो।
प्रेमचन्द साहित्य को प्रयोजनमूलक मानते थे। वे नीतिशास्त्र और साहित्यशास्त्र, दोनों का, एक ही लक्ष्य मानते थे– उपदेश। हाँ, उपदेश के तरीके में $फर्क मानते थे। नीतिशास्त्र तर्कों और उपदेशों के द्वारा बुद्धि और मन पर प्रभाव डालने का यत्न करता है। साहित्य ने अपने लिए मानसिक अवस्थाओं और भावों का क्षेत्र चुन लिया है। उन्होंने कहा है कि हम जीवन में जो कुछ देखते हैं, या जो कुछ हम पर गुजरती है, वही अनुभव और वही चोटें कल्पना में पहुँचकर, साहित्य-सृजन की प्रेरणा करती हैं। कवि या साहित्यकार में अनुभूति की जितनी तीव्रता होती है, उसकी रचना उतनी ही आकर्षक और ऊँचे दर्जे की होती है। जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें शक्ति और गति न पैदा हो, हमारा सौन्दर्य-प्रेम न जाग्रत हो, जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह आज हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहाने का अधिकारी नहीं।
इसलिए, वे जोर देखकर कहते हैं कि 'साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है– उसका दरजा इतना न गिराइए। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।’
प्रेमचन्द मानते थे कि जो भी दलित है, पीडि़त है, वंचित है– चाहे वह व्यक्ति हो या समूह, उसकी हिमायत और वकालत करना साहित्यकार का फर्ज है। समाज में जो कुछ असुन्दर है, अभद्र है, मनुष्यता से रहित है, वह साहित्यकार के लिए असह्य हो जाता है। उस पर वह शब्दों और भावों की सारी शक्ति से वार करता है। प्रेमचन्द का यह नजरिया, पहले से चले आ रहे साहित्यिक मानदंडों से, मेल नहीं खाता। सौन्दर्य के पारम्परिक रूप के बरअक्स प्रेमचन्द ने नया प्रस्ताव पेश किया। इसलिए, कहा कि 'हमें सुन्दरता की कसौटी बदलनी होगी।’ अभी तक यह कसौटी अमीरी और विलासिता के ढंग की थी। हमारा कलाकार अमीरों का पल्ला पकड़े रहना चाहता था, उन्हीं की कद्रदानी पर उसका अस्तित्व अवलम्बित था और उन्हीं के सुख-दु:ख, आशा-निराशा प्रतियोगिता और प्रतिद्वन्द्विता की व्याख्या कला का उद्देश्य था। उसकी निगाह अन्त:पुर और बँगलों की ओर उठती थी। झोपड़े और खंडहर उसके ध्यान के अधिकारी न थे। उन्हें वह मनुष्यता की परिधि से बाहर समझता था। कभी इसकी चर्चा करता भी था, तो इनका मजाक उड़ाने के लिए। उसका ग्रामवासी की, देहाती वेश-भूषा और तौर-तरीके पर हँसने के लिए। उसका शीन काफी दुरुस्त न होना या मुहावरे का गलत उपयोग उसके व्यंग्य विद्रूप का स्थायी सामग्री थी। वह भी मनुष्य है, उसके भी हृदय और हैं और उसमें भी आकांक्षाएँ हैं– यह कला का कल्पना के बाहर की बात थी। जबकि प्रेमचन्द अपने साहित्य में इन्हीं लोगों को जगह दे रहे थे, साथ ही 'साहित्य का उद्देश्य’ भाषण में सैद्धान्तिकी प्रस्तावित कर रहे थे।
बहरहाल, प्रेमचन्द साहित्यकार को स्वभावत: प्रगतिशील मान रहे थे। इसलिए 'प्रगतिशील लेखक संघ’ नाम ठीक नहीं मानते थे। उन्होंने भाषण में कहा कि 'प्र्रगतिशील लेखक संघ’, नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावत: प्रगतिशील होता है।
(2011)
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