हिन्दी में 'दोआबा’ : राजीव रंजन गिरि
'दोआबा’ (सम्पादक - ज़ाबिर हुसैन) का पाँचवाँ अंक खानाबदोश जातियों पर विशेष सामग्री प्रकाशित करने के लिए यादगार रहेगा। इनसानों का वह समुदाय जो अपने भोजन को पीठ पर लेकर एक जगह से दूसरी जगह घूमता रहे, खानाबदोश जातियों के दायरे में आता है। ब्रिटिश हुकूमत ने इन लोगों को अपराधी मानकर इनके लिए 1871 में एक खतरनाक 'अपराधी जनजाति कानून’ बनाया। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान अक्टूबर 1936 में जवाहरलाल नेहरू ने इस कानून की भत्र्सना करते हुए कहा था– ''अपराधी जनजाति कानून के विनाशकारी प्रावधान को लेकर मैं चिन्तित हूँ। यह नागरिक स्वतन्त्रता का निषेध करता है। इसकी कार्य-प्रणाली पर व्यापक रूप से विचार किया जाना चाहिए और कोशिश की जानी चाहिए कि इसे संविधान से हटाया जाए।
किसी भी जनजाति को 'अपराधी’ करार नहीं दिया जा सकता। यह सिद्धान्त न्याय और अपराधियों से निबटने के किसी भी सभ्य सिद्धान्त से मेल नहीं खाता।’’ आजादी मिल गयी परन्तु इन लोगों के खिलाफ बना नृशंस कानून मामूली फेरबदल के साथ 'आदतन अपराधी कानून’ 1952 के तौर पर कायम रहा। गद्यकार जाबिर हुसैन ने खानाबदोश और अद्र्ध-खानाबदोश जनजाति आयोग के राष्ट्रीय अध्यक्ष बालकृष्ण रेणके द्वारा 2007 में सौंपी रिपोर्ट के हवाले से कई मानीखेज सवाल उठाये हैं। आयोग ने इस बात पर गहरी चिन्ता जतायी है कि आज भी बड़ी संख्या में विभिन्न राज्यों में ऐसी जातियाँ मौजूद हैं, जिन्हें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अथवा अन्य पिछड़े वर्गों की सूची में शामिल नहीं किया गया है। अपने भ्रमणशील स्वभाव के कारण ये जातियाँ किसी 'वोट बैंक’ का हिस्सा नहीं बन पायी हैं। नतीजतन इनका कोई राष्ट्रीय नेतृत्व भी नहीं है जो सरकार पर पुरजोर दबाव बना सकें। ऐसे में, इन पर कविता, कहानी और आलेख के जरिये लोगों के बीच इनके जीवन-संघर्षों को पहुँचाने के लिए 'दोआबा’ को याद किया जाएगा। यह भी याद रखने की बात है कि जिस प्रकार दलित आत्मकथाओं के प्रकाशन से साहित्य और समाज में एक सृजनात्मक विस्फोट हुआ था वैसे ही खानाबदोश जातियों के लोगों द्वारा लिखी आत्मकथाओं से होगा, बल्कि यह कहना चाहिए कि दलितों से ज्यादा ही होगा। क्या अब कहने की जरूरत है कि 'आदतन अपराधी कानून’ भारतीय लोकतन्त्र पर काला धब्बा है जिसे जल्द-से-जल्द समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
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