भारतेन्दु-युग और इतिहास-निर्माण : राजीव रंजन गिरि
हिन्दी आलोचना में सर्वाधिक वाद-विवाद भक्ति-आन्दोलन के सन्दर्भ में होता रहा है। करीब-करीब सभी महत्वपूर्ण आलोचकों ने भक्ति-आन्दोलन के उदय की पृष्ठभूमि, उसके मुख्य स्वर और समाप्ति के लिए जिम्मेवार कारकों को अपने-अपने नजरिये देखा-परखा एवं विश्लेषित किया है। पिछले पन्द्रह-बीस वर्षों से हिन्दी-आलोचना में उन्नीसवीं सदी (खासकर भारतेन्दु-युग) के साहित्य के सन्दर्भ में बहस-मुबाहिसा बढ़ा है। हिन्दी के पहले व्यवस्थित इतिहासकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और बाद में डॉ. लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय ने उन्नीसवीं सदी के साहित्य पर लेखन किया था। इन्हीं दोनों लेखकों की मान्यताओं और लेखन को स्रोत मानकर ज़्यादातर लोग अपनी राय देते थे। डॉ. रामविलास शर्मा ने उस दौर के साहित्य पर गंभीरता एवं परिश्रम पूर्वक काम किया। इन्होंने भारतेन्दु-युग की रचनाओं को परखकर, उस दौर को 'हिन्दी नवजागरण’ का आरम्भ माना। साथ ही इस 'हिन्दी नवजागरण’ को चार चरणों में देखा। रामविलास जी की इस अवधारणा पर डॉ. नामवर सिंह ने कुछ सवाल खड़े किए। हालांकि नामवर जी ने खुद उस दौर पर अलग से कुछ नहीं किया, जिससे उस काल के लेखकों या साहित्य को समझने में विशेष मदद मिलती। नतीजतन, कुछेक सवालों को खड़े किए जाने के अलावा कथित 'हिन्दी नवजागरण’ पर वैकल्पिक धारणा नहीं बन सकी। इसकी कई वजहें हैं। एक महत्वपूर्ण वजह है कि हिन्दी के ज्यादातर आलोचक शोध कर, प्राथमिक स्रोतों को खुद खंगालकर, आलोचना नहीं लिखते। शोधपूर्ण आलोचना का चलन हिन्दी-जगत में काफी कम है। वीर भारत तलवार सरीखे कुछ लोग जरूर दिखते हैं जो, दूसरे अनुशासनों की तरह, काफी श्रमपूर्वक प्राथमिक स्रोतों को खोजते और तह में जाकर उसे विश्लेषित करते हैं। दूसरी वजह, हिन्दी अकादमिक समाज का 'खास’ मिजाज़ है जो नई बातों को जल्दी नहीं पचा पाता।
वसुधा डालमिया, सुधीर चन्द्र और वीरभारत तलवार ने भारतेन्दु-युग पर विस्तारपूर्वक काम किया है और रामविलास जी की मान्यताओं से अलग स्थापना की है। युवा आलोचक वैभव सिंह की किताब 'इतिहास और राष्ट्रवाद’ (सन्दर्भ उन्नीसवीं सदी का हिन्दी नवजागरण) इस कड़ी में देखी जानी चाहिए। यह किताब पाँच अध्यायों– 'इतिहास : परम्परा और अन्वेषण’, 'इतिहास लेखन की राजनीति और दृष्टिकोण’, 'प्रमुख लेखक, ऐतिहासिक कृतियाँ और भारतीय समाज’, 'अन्य लेखकों की इतिहास-दृष्टि और राष्ट्र’, 'इतिहास-दृष्टि, सांस्कृतिक पहचान और राष्ट्र की धारणा’- में बँटी है।
वैभव ने इसमें अँग्रेज़ों के आने से पहले हमारे देश में इतिहास किस रूप में लिखा जाता था, बाद में किस तरह लिखा गया; इसका विश्लेषण किया है। कल्हण की 'राजतरंगिणी’ और यहाँ आने वाले महत्वपूर्ण यात्रियों के वृत्तांतों की कमियों की तरफ इशारा किया है। रॉयल एशियाटिक सोसायटी की स्थापना के बाद से भारतीय इतिहास में अँग्रेजों की दिलचस्पी बढ़ती हुई दिखती है। वैभव ने अध्ययन किया है कि आखिर क्यों अँग्रेजों की दिलचस्पी भारतीय समाज और इतिहास में बढ़ी? उस दौरान भारतीय इतिहास में दिलचस्पी लेने वाले इतिहासकारों, अनुवादकों मसलन-चाल्र्स विलकिन्स, चाल्र्स ग्रांट, विलियम्स जोन्स आदि के अध्ययन का तुलनात्मक विश्लेषण किया है। इससे उस दौर में दो तरह की प्रवृत्ति दिखती है। एक, भारत के अतीत की निन्दा और दूसरा, भारतीय अतीत का गुणगान। परस्पर विरोधी दिखने वाली इन दोनों प्रवृत्तियों के सिद्धान्तकारों में एका था तो इस मुद्दे पर कि ब्रिटिश अधीनता में ही भारत की बेहतरी सम्भव है। साम्राज्यवादी मंसूबे की वैधता को सिद्ध करने वाली इतिहास-दृष्टि की पड़ताल वैभव ने की है। इनके बाद के इतिहास लेखन में भारत को धर्म के आधार पर समझने व उसकी साम्प्रदायिक व्याख्या करने की झलक मिलती है। जेम्स मिल, एलफिंस्टन, कैम्पसन सरीखे इतिहासकारों के विश्लेषण में बारीक फर्क तो दिखता है लेकिन पूरे मुगल काल को अन्धकार-युग, हिन्दू-विरोधी और अमानवीय शासक के तौर पर स्थापित करने की कोशिश भी दिखती है। इस इतिहास-दृष्टि का असर भारतेन्दु युग के रचनाकारों पर भी दिखता है। एलिफिंस्टन और जेम्स मिल के बीच फर्क करते हुए वैभव ने लिखा है 'एलफिंस्टन के इतिहास में जेम्स मिल के मुकाबले हिन्द्ू-धर्म संस्कृति की तीखी आलोचना से बचने का भी प्रयास किया गया। मिल मध्यकालीन मुस्लिम सभ्यता को (हिन्दू सभ्यता से) बेहतर समझते थे तो एलफिंस्टन हिन्दुओं क ो ऐसे धार्मिक समुदाय के रूप में पेश करते थे जिसने तमाम मुस्लिम अत्याचारों को सहने के बावजूद अपनी सहिष्णुता, उदारता और विनम्रता के गुणों को नहीं त्यागा।’ (पृष्ठ-66)
औपनिवेशिक शासन काल में नयी परिस्थितियों से यहाँ के शिक्षित भद्रवर्ग का साबका पड़ा। इस वर्ग में इस संघात से नयी चेतना आयी, जिसके परिणाम स्वरूप इसे अपने 'हित’ का ख्याल आया। औपनिवेशिक सांस्कृतिक चुनौतियों से टकराने के दौरान इस भद्र वर्ग पर प्राच्यवाद का गहरा असर पड़ा, नतीजतन देश के अन्दर अतीत का काल-विभाजन, हिन्दुओं-मुसलमानों के बीच भौतिक-मनोवैज्ञानिक दूरी और साझी राष्ट्रीयता में पैदा हो रही दूरी बढ़ती गयी। वैभव ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है 'अँग्रेजी शिक्षा के प्रभाव से पैदा होने वाला एक नया शिक्षित भद्र वर्ग ही सबसे पहले विभिन्न क्षेत्रों में भारतीय हितों की वकालत करने के लिए आगे आया। उत्तर भारत, बंगाल और महाराष्ट्र का यह शिक्षित भद्र वर्ग प्राच्यवादियों और जेम्स मिल, इलियट या एलफिंस्टन जैसे अन्य इतिहासकारों की ऐतिहासिक अवधारणाओं के प्रभाव से राष्ट्रवाद के जुडऩे के बावजूद एक नए किस्म के साम्प्रदायिक धु्रवीकरण का परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से समर्थक बन बैठा। यह प्रवृत्ति भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रताप नारायण मिश्र और राधाकृष्ण दास से लेकर बंगाल के साहित्यिक नवजागरण के अग्रदूत बंकिम चन्द्र में भी दिखाई देती है। इन लेखकों ने भारत की वर्तमान हिन्दू कायरता के मुकाबले प्राचीन हिन्दू गौरव को खड़ा कर, कायरता और स्वाधीनता प्रेम के अभाव को हिन्दुओं का स्थायी स्वभाव मान लेने के आरोप का खण्डन किया। इस पूरे प्रयास में सबसे अधिक सहारा प्रचारवादी लेखन से किया गया। हिन्दू आत्म बोध के नव निर्माण और उस पर होने वाले प्रत्यक्ष आक्रमणकारों का सामना करने के लिए इतिहास का महत्व कितना बढ़ गया था, यह उस समय के अनेक रचनाकारों के निबन्ध और लेखों को पढ़कर समझा जा सकता है।’ (पृष्ठ-75)
वैभव की उपरोक्त स्थापना किताब के तीसरे और चौथे अध्याय के विश्लेषण से पुष्ट होती है। इन दोनों अध्यायों में भारतेन्दु-युग के महत्वपूर्ण लेखकों मसलन-राजा शिव प्रसाद 'सितारैहिन्द’, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, राधा चरण गोस्वामी, बालकृष्ण भट्ट, राधाकृष्ण दास, बालमुकुन्द गुप्त, बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन’, कार्तिक प्रसाद खत्री, श्रीनिवास दास, देवी प्रसाद मुंसिफ और अंबिकादत व्यास की रचनाओं खासकर नाटकों, निबन्धों का विश्लेषण किया गया है। इस किताब के सबसे महत्वपूर्ण और रोचक यही दोनों अध्याय हैं। जिसमें वैभव ने इन रचनाकारों और इनकी रचनाओं को अलग परिप्रेक्ष्य में परखकर पहले से हिन्दी आलोचना में मौजूद मान्यताओं के बरअक्स नयी स्थापना प्रस्तुत की है। गौरतलब है कि वीरभारत तलवार, भारतेंदु-युगीन रचनाओं का बारीक विश्लेषण कर, इस दौर को 'हिन्दी नवजागरण’ के बदले 'हिन्दी-आन्दोलन’ मानने की प्रस्तावना कर चुके हैं। वैभव के विश्लेषण से भी डॉ. तलवार की स्थापना पुष्ट होती है और कथित 'हिन्दी नवजागरण’ का वास्तविक चरित्र उजागर होता है।
उन्नीसवीं सदी के सभी रचनाकार अपने नाटकों में एक 'नया’ इतिहास गढ़ रहे थे। इसमें इतिहास कम उनका 'आत्म’ ज्यादा होता था। यह 'आत्म’ मुस्लिम-शासन की जटिलता और उसके सकारात्मक पहलुओं को नजर अंदाज कर हिन्दू-विरोधी मानता था। इसी का विकास अँग्रेजी सत्ता को एक रक्षक के रूप में देखने में हुआ। जिसमें माना गया कि अँग्रेजों ने मुसलमानों को हराकर उनकी क्रूरता से निजात दिलाई। इस दृष्टि से देखने पर भारतेन्दु-युग के सभी रचनाकारों में थोड़ी-बहुत भिन्नता के बावजूद करीब-करीब एका दिखता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र-जिन्हें 'हिन्दी नवजागरण’ का मुख्य प्रणेता माना जाता है– में भी यही रवैया दिखता है। अमूमन मुगल शासक को हिन्दू-विरोधी मानने वाले लोग भी अकबर की सराहना करते हैं। भारतेन्दु ने अकबर को ज्यादा धूत्र्त मानते हुए 'बादशाह दर्पण’ में लिखा है 'प्यारे भोले-भाले हिन्दू भाइयों! अकबर का नाम सुनकर आप चौंकिए मत। ये ऐसा बुद्धिमान शत्रु था उसकी बुद्धिबल से आज तक आप लोग उसको मित्र समझते थे। किन्तु ऐसा नहीं है। उसकी नीति अँग्रेजों की भांति गूढ़ थी। मूर्ख औरंगजेब उसको समझा नहीं, नहीं तो आज दिन हिन्दुस्तान मुसलमान होता। हिन्दू-मुसलमानों में खाना-पीना, शादी कभी की चल गयी होती। अँग्रेज़ों को भी जो बात नहीं सूझी, वह इसको सूझी।’ (पृष्ठ-112 पर उद्धृत) इतिहासकार विपन चन्द्र के हवाले से, वैभव ने लिखा है कि मध्ययुगीन लोगों के भोगे हुए इतिहास या उस समय की ऐतिहासिक प्रकिया ने नहीं, अपितु उनकी साम्प्रदायिक व्याख्या ने ही साम्प्रदायिकता को जन्म दिया। वैसे समय-समय पर भारतेन्दु हिन्दू-मुसलमानों की एकता की भी अपील करते थे लेकिन उस दौर में जिन मुद्दों और भौतिक परिस्थितियों से, सचमुच एकता स्थापित हो सकती थी, उसमें अलगाववादी रुख अ$िख्तयार करते थे।
वैभव ने इन रचनाकारों का अध्ययन करते हुए नतीजा निकाला है कि इन लोगों में 'भारतीयता की एक मिली-जुली संस्कृति का इतिहास लिखने की चिन्ता गायब है और हिन्दुओं का अलग इतिहास लिखने पर विशेष बल है।’ (पृष्ठ-260) यहाँ ध्यान देने की जरूरत है कि ऐसी प्रवृत्ति उस दौर में मुस्लिम रचनाकारों के भीतर भी मौजूद थी, जिसे लेखक ने ठीक नोट किया है। यानी हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता एक-दूसरे की प्रतिक्रिया में नहीं बल्कि साथ-साथ पैदा हुई। भाषा, लिपि और गो रक्षा के मुद्दे पर यह अलगाव साफ-साफ दिखता है। हालाँकि उस दौर में वस्तु स्थितियाँ हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अलगाव और सामंजस्य, दोनों के पक्ष में थी। लेकिन दोनों धर्मों के भद्र वर्ग ने अलगाववादी प्रतीकों के चुनाव में, इस रवैये का विकास इतना प्रबल हुआ कि 'इससे साझा राष्ट्रीयता की सम्भावनाएँ खत्म तो नहीं हुईं लेकिन उसका आधार कमज़ोर ज़रूर हो गया। इतिहास ने उन झूठी-सच्ची स्मृतियों को गढ़ा जिसमें हिन्दू-मुस्लिमों के अन्तर्सम्बन्धों में हमेशा के लिए शक और पूर्वाग्रह पैदा होते चले गए। आपसी कलह और संघर्ष वाले अतीत की कल्पना सह-अस्तित्व वाले भविष्य के विकास में बाधना बन गयी।’’ (पृष्ठ-263)
इतिहास में घुली इस साम्प्रदायिक चेतना के अलावा वैभव ने स्त्रियों के परिप्रेक्ष्य से भी उस दौर की रचनाओं का विश्लेषण किया है। उस दौर में स्त्रियों की धार्मिक पहचान गढ़ी जा रही थी। इन्हें एक एजेण्डे के तहत इन रचनाओं में लाया जा रहा था। वैभव ने ठीक नोट किया है कि इस समय की ऐतिहासिक रचनाओं में स्त्रियों की परिवार और समाज दोनों जगह निर्वाह की जा रही भूमिकाओं का पुनराविष्कार हुआ। अधिकांश ऐतिहासिक रचनाओं की स्त्रियाँ विधर्मी मुसलमानों को सबक सिखाने वाली और हिन्दू गौरव की रक्षा के लिए तत्पर हैं। वे सनातनी आदर्शों का भी सम्मान करती हैं और किसी भी पितृसत्ता को चुनौती दिए बिना जीती हैं। स्त्रियों का प्रयोग हिन्दू अस्मिता के संघर्ष को उबारने के लिए भी किया गया। इसलिए अचरज नहीं कि इस काल के अधिकांश ऐतिहासिक रचनाओं में स्त्रियों का इस्तेमाल उनके बारे में प्रचलित सनातनी आदर्शों और हिन्दुओं के मन में बैठी मुस्लिम विरोधी छवियों को मजबूत करने के लिए ही किया गया। इनमें स्त्रियाँ बाद में स्त्रियाँ थीं; और धर्म की नुमाइन्दगी करने वाली चरित्र पहले थीं। वैभव को उस दौर में स्त्रियों के सन्दर्भ में विक्टोरियन नैतिकता का भी अध्ययन करना चाहिए था। इससे पता चलता कि आखिर अँग्रेज़ों के सांस्कृतिक तर्क की कथित प्रतिरोधी विमर्श तैयार करने वाले रचनाकार, किस हद तक उनके मूल्यों को भारतीय समाज में फैलाने में, मददगार साबित हो रहे थे। साथ ही विक्टोरियन नैतिकता से उपजे मूल्यों का उनकी 'खास’ तरह की चेतना के बीज कैसा रिश्ता था? बहरहाल, इस किताब की खूबियों को रेखांकित करते हुए प्रस्तावना में डॉ. नित्यानन्द तिवारी ने ठीक लिखा है कि इस अध्ययन में तथ्यों को किसी पूर्व निर्धारित दृष्टि से नहीं, यथा संभव अन्तर्दृष्टि से–जो विश्लेषण के दौरान पाई गयी–समझने और आकलन करने का प्रयत्न किया गया है। अनेक देशी-विदेशी विद्वानों के अध्ययन व निष्कर्षों को भी इसी क्रम में बिना जाँच न तो खारिज किया गया है और न ही स्वीकार।
अन्त में एक सवाल। वैभव ने भूमिका में लिखा है कि 'हिन्दी लेखन और इतिहास में जिसे नवजागरण के नाम से जाना जाता है, उसका ज़्यादा लोकप्रिय नाम आज भी भारतेन्दु युग ही है।’ जब उस दौर का ज़्यादा लोकप्रिय नाम भारतेन्दु युग है– जो बिल्कुल सच है– तो लेखक ने किताब को नाम में 'सन्दर्भ: 19वीं सदी का हिन्दी नवजागरण’ क्यों रखा है?
(2010)
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