आरम्भिक आधुनिकता की तलाश : राजीव रंजन गिरि
आधुनिकता के सन्दर्भ में विचार करते समय यह सवाल अक्सर सामने आता है कि क्या आधुनिकता देश -काल और भूगोल निरपेक्ष होती है या स्थान विशेष के परिप्रेक्ष्य में इसकी अलग से शिनाख्त सम्भव है? यह सवाल वस्तुत: इस धारणा से उपजा है, जिसमें आधुनिकता को पाश्चात्य निर्मिति माना जाता रहा है और उसी के आधार पर पूरी दुनिया में आधुनिकता की पहचान की जाती रही है। इस सवाल का एक पहलू औपनिवेशिकता से जुड़ा हुआ है। पश्चिम की साम्राज्यवादी-औपनिवेशिक शक्तियों ने एशिया और अफ्रीका समेत दुनिया के अनेक हिस्सों को गुलाम बनाया और इस अत्याचार को ढकने के लिए दार्शनिकता की जिस चादर का इस्तेमाल किया, उसके तन्तुओं को पश्चिम केन्द्रित आधुनिकता के विचार से ताकत मिलती थी। दूसरे शब्दों में, पश्चिम ने औपनिवेशिक शासन के जरिये किये जा रहे शोषण को, शोषितों को आधुनिक बनाने का, उपक्रम बताया। आज इस आधुनिकता का छद्म स्पष्ट हो चुका है, जबकि इसके बरअक्स विभिन्न स्थानों में पल्लवित-पुष्पित हुए अग्रगामी विचारों की पहचान की जा चुकी है।
इस तरह आज किसी एकाश्मक (मोनोलिथ) आधुनिकता के बजाय अनेक आधुनिकताओं की तर्कसंगत चर्चा की जाती है। एक के बजाय अनेक आधुनिकताओं की धारणा एक ओर जहाँ औपनिवेशिक वर्चस्व के तिकड़म को नकारती है, वहीं वैश्विक परिप्रेक्ष्य में विभिन्न देशी स्थानीयताओं के अग्रगामी तत्त्वों को वाजिब महत्ता प्रदान कर, अँधेरे से बाहर निकालने का वैचारिक उपक्रम करती है।
गौरतलब है कि पश्चिमी ज्ञान-मीमांसा के असर में औपनिवेशिक आधुनिकता के बरअक्स 'देशी आधुनिकता’ के प्रचलित लक्षण नजरअन्दाज होते रहे। साथ ही यह समझ बनी तथा विकसित हुई कि गैर-पश्चिमी समाज में आधुनिकता के प्रादुर्भाव और विकास के लिए उपयुक्त आबोहवा मौजूद नहीं थी। आशय यह है कि गैर-पश्चिमी सभ्यताओं में, वैयक्तिक-सत्ता और वैयक्तिक-बोध के ऊपर धर्म तथा जाति पर आधारित, सामूहिक अस्मिताओं की जकड़बन्दी इतनी मजबूत थी कि वैयक्तिकता का विकास सम्भव ही नहीं था। ज़ाहिर तौर पर गैर-पश्चिमी सभ्यताओं में यह अन्दरूनी खामी मौजूद रही है। गैर-पश्चिमी सभ्यता वाली यह कमजोरी पश्चिमी सभ्यता में नहीं थी। सेंट ऑगस्टाइन के 'कन्फेशन’ में इसके लक्षण पूरी साफगोई से नजर आते हैं। इसलिए वहाँ व्यक्ति-सत्ता और वैयक्तिकता के बोध के विकास के लिए पर्याप्त अवसर था। चूँकि पश्चिम में यह अवसर था, इसलिए आधुनिकता का विकास सम्भव हो सका।
प्रखर आलोचक राजकुमार ने 'तद्भव’ के बीसवें अंक में प्रकाशित अपने विचारोत्तेजक निबन्ध 'आत्म और आत्मचरित’ में इस मसले पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया है। गैर-पश्चिमी सभ्यताओं पर वैयक्तिकता के विकास लायक माहौल न होने के आरोप का जवाब देते हुए इन्होंने लिखा है कि इस तरह के समूचे विवेचन में इस तथ्य को नजरअन्दाज कर दिया गया कि वैयक्तिकता का विकास बहुत कुछ ऐतिहासिक सांस्कृतिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। ये परिस्थितियाँ सभी सभ्यताओं में एक जैसी नहीं होतीं, इसीलिए इन सभ्यताओं में वैयक्तिकता का विकास भी एक जैसा नहीं होता। उल्लेखनीय है कि आधुनिकता की मंजिल तक पहुँचने का जो रास्ता पश्चिम ने अपनाया, जरूरी नहीं कि दूसरी सभ्यताएँ भी उसी रास्ते पर चलकर आधुनिकता की मंजिल तक पहुँचें। इसलिए पश्चिम के नक्शे-कदम पर भारत या अन्य सभ्यताओं में वैयक्तिकता का विकास खोजना, 'यूरोसेंट्रिक’ दृष्टिकोण का सूचक है।
इस जटिल प्रत्यय को समझने-समझाने के लिए राजकुमार ने बनारसीदास जैन द्वारा 1641 ई. में लिखित आत्मकथा 'अर्द्ध कथानक ' (कुछ विद्वान इसे 'अर्द्ध-कथा’ भी कहते हैं) का सहारा लिया है। असल में जिस चिन्तनधारा की यह मान्यता है कि भारत सरीखे गैर-पश्चिमी सभ्यता वाले मुल्क में वैयक्तिकता के विकास के लिए माकूल आबोहवा मौजूद नहीं थी; ऐसी मान्यता की परिणति इस नतीजे में हुई कि ज़ाहिरी तौर पर आत्मकथा का विकास असम्भव था। आत्मकथा की परम्परा नहीं होने का कारण यह बताया गया कि यहाँ आत्मकथा के विकास के लिए जरूरी ज्ञान-मीमांसात्मक और सांस्कृतिक परिस्थितियाँ मौजूद नहीं थीं। जी.एन. देवी के हवाले से, व्याख्यायित करते हुए इन्होंने लिखा है हमारे यहाँ आत्म (सेल्फ) और अन्य (नान-सेल्फ) को 'पुरुष’ का प्रतिबिम्ब माना जाता था। एक ऐसे यथार्थ का प्रतिबिम्ब जो मानवीय अवबोध के परे था। यहाँ आत्म और अन्य के बीच पूर्ण पार्थक्य की परिकल्पना नहीं की गयी थी। वस्तुत: भारतीय परम्परा में अस्तित्व की समूची छटा को जटिल सातत्य के रूप में देखा जाता था। अज्ञान के वशीभूत चेतना ही इनके बीच अलगाव की परिकल्पना कर सकती थी। अत: अन्य के भौतिक अस्तित्व को स्वीकार करने का कोई औचित्य नहीं बचता था। इसी मुसीबत के निदान के लिए भारतीय परम्परा ने विद्या और अविद्या की अवधारणा प्रस्तुत की थी। विद्या यानी आत्मा से नि:सृत होने वाले ज्ञान और अविद्या मतलब इन्द्रियजन्य ज्ञान। जी.एन. देवी ने लिखा है कि ''एक ऐसे समाज में जहाँ क्रिया-कलाप की न्यूनतम इकाई व्यक्ति नहीं समाज था, जहाँ अहं (इगो) को ब्रह्म का सूक्ष्म अंश माना जाता था, आत्मकथा के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं थी। आत्मकथा के लिए निश्चित अन्त और रेखीय समय की अवधारणा जरूरी है, लेकिन ये अवधारणाएँ भारतीय दर्शन और जीवन-दृष्टि में मौजूद नहीं थीं। भक्तिकालीन कवियों की रचनाओं में आत्मकथात्मक तत्त्व जरूर मिलते हैं लेकिन इनका उद्देश्य अहं का उत्सव मनाना नहीं, अहं का उदात्तीकरण है। ये आत्मकथात्मक कविताएँ नहीं हैं बल्कि सन्तों की कविताएँ हैं। एक कलाकार के रूप में जागरूकता ब्रिटिश उपनिवेशवाद की देन हैं।’’ जी.एन. देवी के मुतल्लिक राजकुमार ने ठीक लिखा है कि ''आत्म या वैयक्तिकता के विकास के साथ पश्चिम में आधुनिकता के अभ्युदय का इतिहास भी जुड़ा हुआ है। इसका मतलब यह भी हुआ कि भारत में आधुनिकता का विकास नहीं हो सकता था क्योंकि यहाँ आत्म या वैयक्तिकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी।’’
दार्शनिक आनन्द कुमारस्वामी ने भी इस मसले पर विचार किया है। इनके मुताबिक ''हिन्दू धर्म ने आत्माभिव्यक्ति के किसी भी रूप को न्यायोचित नहीं माना। इसका लक्ष्य हमेशा आध्यात्मिक स्वाधीनता रहा। जहाँ लोग आन्तरिक जीवन की पर्याप्तता के बारे में सचेत होते हैं, अपने या किसी परिवर्तनशील व्यक्तित्व की बाह्य अभिव्यक्ति के प्रति उदासीन हो जाते हैं। हिन्दू सामाजिक अनुशासन का अन्तिम उद्देश्य यह है कि व्यक्ति अपनी वैयक्तिकता को वृहत्तर और गहनतर से संयुक्त करे, सफलता या असफलता की परवाह कि ए बगैर अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन करे। कालातीत और परिवर्तनशील रूप में फर्क समझे और 'मैं’ तथा 'मेरे’ के संकीर्ण पिंजड़े में न फँसे। अज्ञात रहना इस सत्य के अनुरूप है और यह भारतीय सभ्यता की सर्वाधिक गौरवशाली विलक्षणताओं में से एक है। महाकाव्य के रचयिताओं के नाम सिर्फ छायाएँ हैं, परवर्ती काल के लेखकों में भी अपना नाम न देने और अपनी रचना को किसी मिथकीय या प्रसिद्ध कवि से जोड़ देने की प्रवृत्ति हमेशा रही है। इसका मकसद सत्य के प्रति लोगोंं का ध्यान आकृष्ट करना था; सत्य जिसे 'रचने’ का दावा वे नहीं करते थे बल्कि यह कहते थे कि उसे उन्होंने 'सुना’ है। इसी प्रकार शायद ही कोई हिन्दू चित्रकार या मूर्तिकार हो जिसका नाम ज्ञात हो; और समूचे संस्कृत साहित्य में एक भी आत्मकथा नहीं है, इतिहास भी बहुत थोड़ा है।’’ इस प्रसंग में राजकुमार ने बिल्कुल सही नोट किया है कि आनन्द कुमारस्वामी और जी.एन. देवी– दोनों यह मानते हैं कि भारतीय सभ्यता में वैयक्तिकता और आत्मकथा का अभाव था। एक की दृष्टि में यह अभाव भारतीय सभ्यता की खूबी का सूचक है और दूसरे की दृष्टि में खामी का। सम्भवत: यह कहने की आवश्यकता नहीं कि ये दोनों दृष्टियाँ भारतीय सभ्यता की पश्चिम द्वारा निर्मित छवि को प्रश्नांकित नहीं करतीं। यही नहीं, भारतीय सभ्यता की विलक्षणताओं को समझने की कोशिश भी यहाँ नहीं दिखती।
राजकुमार ने कई मिसाल देकर बताया है कि भारत में कवि, कथाकार और शिल्पकार अपने वैशिष्ट्य और वैयक्तिकता को लेकर सचेत थे और उसका बढ़-चढ़कर बखान भी करते थे। यहाँ आत्मकथा भले न लिखी गयी हो लेकिन आत्मकथा लिखने की सम्भावना मौजूद थी। यह अवश्य है कि चूँकि यहाँ 'आत्म’ के मायने पश्चिम से भिन्न थे और यहाँ की साहित्यिक संस्कृति भी पश्चिम से अलग थी, इसलिए यहाँ 'आत्म’ की अभिव्यक्ति के लिए आत्मकथा की स्वतन्त्र विधा का विकास भी बहुत बाद में हुआ। यह जोडऩा जरूरी है कि 'आत्म’ की अवधारणा भी समय के साथ बदलती रही है। 'आत्म’ की उत्पत्तिमूलक अपरिवर्तनशील अवधारणा एक मिथ है जिसे औपनिवेशिक वर्चस्व के दौरान गढ़ा गया था। सच तो यह है कि न तो भारत का इतिहास अपरिवर्तनशील-अवरुद्ध था और न ही 'आत्म’ की अवधारणा स्थिर शाश्वत थी। यह जरूर है कि यहाँ 'आत्म’ और 'अन्य’ में सदैव एकान्तिक विरोध देखने की प्रवृत्ति नहीं रही। इससे यदि कई फायदे हुए तो कुछ नुकसान भी हुए। वी. नारायण राव, डेविड शुलमन और संजय सुब्रह्मणयम ने 'टेक्स्चर ऑफ टाइम’ में लिखा है कि दक्षिण भारत में इतिहास कई विधाओं में लिखा गया है। इतिहास लेखन के लिए विधा के औपचारिक लक्षणों की पाबन्दी को मानना जरूरी नहीं। दक्षिण भारत में इतिहास लेखन की कोई स्वतन्त्र विधा नहीं थी, किसी एक विधा में इतिहास लेखन नहीं किया गया।
बहरहाल, पचपन साल की उम्र में बनारसीदास ने अपनी आत्मकथा लिखी। चूँकि जैन-परम्परा में इनसान की आयु एक सौ दस साल मानी गयी है। इसलिए उन्होंने अपनी आत्मकथा को 'अर्द्ध कथा’ कहा। 'अर्द्ध कथानक ' किसी भी भारतीय भाषा में लिखी गयी पहली आत्मकथा है। इसे किसी बादशाह हाकिम ने नहीं, एक सामान्य व्यापारी ने लिखा है। करीब पैंतीस साल की उम्र में बनारसीदास जैन धर्म के 'अध्यात्म आन्दोलन’ से जुड़े। 'अध्यात्म आन्दोलन’ कर्मकांड विरोधी था तथा चिन्तनशीलता और आन्तरिक शुचिता पर जोर देता था। इसी अध्यात्म आन्दोलन ने आगे चलकर दिगम्बर पन्थ के 'तेरापथ’ सम्प्रदाय को जन्म दिया। 'तेरापथ’ बनारसीदास को अपना आदि गुरु मानता है। राजकुमार ने 'अर्द्ध कथानक’ की खासियत बतायी है– ''कथानायक की वैयक्तिकता। वह किसी जाति या सम्प्रदाय का सिर्फ प्रतिनिधि मात्र नहीं है, उसकी अपनी निजी वैयक्तिकता है। यह ठीक है कि उसका जन्म एक जाति-विशेष में हुआ किन्तु उसकी समूची अस्मिता किसी जाति या सम्प्रदाय से पूरी तरह निर्धारित और नियन्त्रित नहीं होती। यह कहना तो सम्भवत: हास्यास्पद होगा कि उसकी अस्मिता किन्हीं तात्त्विक और बुनियादी ज्ञानमीमांसात्मक सूत्रों से संचालित होती है।’’
समाज विज्ञान में 'आरम्भिक आधुनिकता’ ( Early Modernity ) की अवधारणा के लिहाज से खूब काम हो रहा है। राजकुमार ने इस अवधारणा का 'चित्रात्मक रेखांकन’ ' अर्द्ध कथानक' में देखा है। सम्भवत: पहली बार हिन्दी में 'आरम्भिक आधुनिकता’ को लेकर इतना महत्त्वपूर्ण काम सामने आया है। राजकुमार का यह अध्ययन 'औपनिवेशिक आधुनिकता’ के सार्वभौम रूप का प्रत्याख्यान करता है। हालाँकि यह सवाल शेष रह जाता है कि ' अर्द्ध कथानक’ की परम्परा का विकास हिन्दी में क्यों नहीं होता? फारसी में तो, बाद में, आत्मकथाएँ मिलती हैं; पर हिन्दी में यह धारा सूख क्यों जाती है? राजकुमार ने इस धारा के अतीत का उत्खनन किया है। आज जब 'आत्मकथा’ की धारा पूरे वेग से हिन्दी में प्रवाहित हो रही है, ऐसे में ' अर्द्ध कथानक ’ के बाद की धारा की तलाश जरूरी है। क्या वास्तव में यह धारा सूख गयी अथवा विभिन्न विधाओं में बिखरी पड़ी आत्माभिव्यक्तियों की पहचान ही नहीं हो पायी? इन दोनों स्थितियों में, तलाश जरूरी है। अन्त में, 'औपनिवेशिक आधुनिकता’ और पूर्व औपनिवेशिक आधुनिकता (आरम्भिक आधुनिकता) के फर्क को जानना जरूरी है। वी. नारायण राव इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं ''औपनिवेशिक आधुनिकता को सम्भवत: सबसे आसानी से इस बात के जरिये व्याख्यायित किया जा सकता है कि वह क्या नहीं है। यह समीपस्थ अतीत का निषेध करती है और अपने को इससे विशिष्ट रूप से भिन्न बताती है। इसके विपरीत पूर्व औपनिवेशिक आधुनिकता अतीत से रैडिकल विच्छेद के रूप में स्वयं को नहीं परिभाषित करती और न ही यह अतीत के महत्त्व से इनकार करती है। यह परम्परा की अविच्छिन्नता को बनाये रखती है लेकिन संवेदनाओं में परिवर्तन को रेखांकित करती है।’’
(2009)
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