दलित, गांधी और प्रेमचन्द : राजीव रंजन गिरि
दलित आन्दोलन और दलित साहित्य के विकास के साथ जिन दो व्यक्तियों पर सबसे ज्यादा सवाल उठने शुरू हुये, वे हैं– महात्मा गांधी और प्रेमचन्द। गांधी और प्रेमचन्द के कुछ विचारों से इत्तेफाक न रखने के बावजूद इसे स्वीकार करने में परेशानी नहीं होनी चाहिये कि गांधी तत्कालीन राष्ट्रीय स्वाधीनता-आन्दोलन के सबसे बड़े नेता थे और प्रेमचन्द सबसे बड़े कथाकार। संयोगवश, गांधी और प्रेमचन्द दोनों गैर-दलित थे। इतिहास के उस दौर में, गांधी और प्रेमचन्द अपने समय व समाज के लोगों में दलित तबके के प्रति अपनी पक्षधरता के लिए 'बदनाम’ थे। इस स्थिति तक, इन दोनों के विचारों के पहुँचने में, क्रमिक विकास दिखता है। हालाँकि इस विकास में तत्कालीन परिस्थितियों के महत्त्व को भी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। गांधी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समय स्वाधीनता-आन्दोलन के नेताओं से जब अछूतोद्धार आन्दोलन का आह्वान किया तो ज्यादातर नेताओं को नागवार लगा था।
जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में इसे स्वीकार भी किया है। गोया कि पूरे देश को आजाद कराने जैसे बड़े मकसद के सामने गांधी के अछूतोद्धार जैसे रचनात्मक कार्य का कोई महत्त्व ही न हो! इन नेताओं को स्वाधीनता की लड़ाई के समय अछूतोद्धार जैसा आन्दोलन अपने लक्ष्य से भटकाव लगा था। इन लोगों का मानना था कि आजादी मिलते ही इन सारी आन्तरिक समस्याओं का हल अपने-आप हो जायेगा। लेकिन गांधी को इसका भरोसा नहीं था। तभी तो वे स्वाधीनता-आन्दोलन के समानान्तर अछूतोद्धार कार्यक्रम पर जोर दे रहे थे। प्रेमचन्द अपने रचनात्मक साहित्य एवं पत्रकारिता सम्बन्धी लेखन में इन सवालों को बार-बार उठा रहे थे और अपना पक्ष स्पष्ट कर रहे थे।
भारतीय दलित साहित्य अकादमी के सदस्यों ने प्रेमचन्द की एक सौ पच्चीसवीं जयन्ती के अवसर पर 'रंगभूमि’ को जलाया। इन लोगों का कहना है कि 'रंगभूमि’ में दलितों के एक खास जातिसूचक शब्द का प्रयोग हुआ है, जिससे जाटव समाज के लोगों की भावनाएँ आहत हो रही हैं। गौरतलब है कि 'रंगभूमि’ सी.बी.एस.ई. बोर्ड के पाठ्यक्रम में लगाया गया है। सी.बी.एस.ई. बोर्ड और प्रेमचन्द को लेकर पिछले साल भी काफी विवाद हुआ था। लेकिन तब विवाद की वजह दूसरी थी। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय दलित साहित्य अकादमी का सदस्य कोई महत्त्वपूर्ण दलित रचनाकार नहीं है। इसमें खास विचारधारा के दलित लेखक हैं। जिन दलित लेखकों ने अपनी महत्त्वपूर्ण रचनाओं के जरिये खास पहचान बनायी है, वे सब दलित लेखक संघ के सदस्य हैं। दलित लेखक संघ के लेखकों ने भारतीय दलित साहित्य अकादमी के लेखकों का साथ नहीं दिया। जिस दिन भारतीय दलित साहित्य अकादमी के सदस्य 'रंगभूमि’ जला रहे थे, उसी दिन 'हंस’ द्वारा आयोजित गोष्ठी में दलित रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि और श्यौराजसिंह 'बेचैन’ ने अपनी असहमति जतायी। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इसका विरोध करते हुये कहा था कि प्रेमचन्द से पूना पैक्ट के मुद्दे पर हमारा विरोध है, लेकिन हम उनके रचनात्मक महत्त्व को अस्वीकार नहीं करते। किसी रचना का जवाब रचना से ही दिया जा सकता है। हम उसको जलाने के पक्ष में नहीं हैं। श्री वाल्मीकि का कहना था कि अगर जलाना ही है तो पहले अपने जाति प्रमाण-पत्र को जलाना चाहिये। दलित लेखक डॉ. तुलसी राम ने इस मुद्दे पर गहरायी से विचार करते हुए, एक साक्षात्कार में, कहा है कि ''शब्दों के बाल की खाल निकाली जाए तो इस खास जातिसूचक शब्द का उल्लेख ऋग्वेद, गीता, पुराण आदि ग्रन्थों में नहीं है। इस शब्द का उल्लेख तो मध्ययुग के बाद देखने को मिलता है। इस आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि इन शब्दों का इस्तेमाल गलत है, लेकिन वर्ण-व्यवस्थावादी बातों को भी सही नहीं ठहरा सकते।
गौतम बुद्ध ने वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ आन्दोलन चलाया और उसे अवैध घोषित किया था। लेकिन अपने उपदेशों में उन्होंने भी एक खास शब्द का काफी इस्तेमाल किया। शब्दों के ही इस्तेमाल की बात है तो आम्बेडकर की पुस्तक 'रीडिल्स ऑफ हिन्दुत्व’ में रीडिल ऑफ राम, रीडिल ऑफ कृष्ण पर शिवसेना, बी.जे.पी. और आर.एस.एस. ने खूब बवाल मचाया था। इस समस्या से निपटने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने फुटनोट लिखवाया है कि ये लेखक के निजी विचार हैं। उनका सरकार से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसी तरह का फुटनोट प्रेमचन्द की 'रंगभूमि’ में भी लिखा जा सकता है कि लेखक का विचार दलित आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचाना नहीं है। इन शब्दों को तकनीकी रूप में देखने के बजाय उनके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर ध्यान देना चाहिए।’’ (न.भा.टा., 1 अगस्त, 04) इस विवाद का यह सुखद पक्ष है कि ज्यादातर महत्त्वपूर्ण दलित बुद्धिजीवियों के विचार ओमप्रकाश वाल्मीकि और डॉ. तुलसीराम के विचारों से मिलते-जुलते हैं।
'रंगभूमि’ को जलाने वाले यह भूल जाते हैं कि यह 1930 से पहले की रचना है। प्रेमचन्द ने एक दलित (जो अन्धा भी है) सूरदास को इस उपन्यास का नायक बनाया है। सूरदास के रूप में प्रेमचन्द ने एक ऐसे चरित्र को गढ़ा था, ''अन्याय देखकर उससे न रहा जाता था, अनीति उसके लिए असह्य थी।’’ प्रेमचन्द ने सूरदास को न सिर्फ इस उपन्यास के नायक के रूप में चित्रित किया है, बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि वह स्वाधीनता-संग्राम का भी नायक है। सूरदास का नायकत्व विनय और राजा महेन्द्र प्रताप सिंह (रंगभूमि के पात्र) जैसे लोगों के भारतीय समाज में कायम नायक की छवि पर सवाल खड़ा करता है और पोल भी खोलता है। सवाल उठता है कि क्या हम 'रंगभूमि’ को उसके देश-काल से काटकर पढ़-समझ सकते हैं? क्या किसी रचना को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से अलग कर देखना उचित है? बहरहाल, जब भावनाओं के आहत होने की बात आ जाती है तो उचित-अनुचित की कसौटी गौण हो जाती है। तभी तो किसी 'सैटेनिक वर्सेज’ से 'प्रगतिशील’ इस्लाम और 'वाटर’ तथा कुछ पेंटिंग में 'उदारवादी’ हिन्दू धर्म की भावनाएँ आहत हो जाती हैं। सम्भाजी ब्रिगेड की आहत भावनाओं का कुछ माह पहले हुआ प्रकटीकरण तो एकदम ताजी घटना है।
अगरचे प्रेमचन्द के साथ यह पहली बार नहीं हुआ है कि उनकी रचनाएँ पढ़कर किसी को परेशानी हुई हो। प्रेमचन्द का अपने जीवन-काल में भी ऐसी समस्याओं से साबका पड़ा था। प्रेमचन्द ने एक लेख 'क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं’ में एक राष्ट्रवादी नेता ज्योति प्रसाद 'निर्मल’ का प्रतिवाद प्रस्तुत किया है। निर्मल जी ने प्रेमचन्द की कहानी 'ब्रह्मभोज’ एवं 'सत्याग्रह’ का हवाला देते हुए आरोप लगाया था कि प्रेमचन्द ने तीन-चौथाई कहानियों में ब्राह्मणों को काले रंगों में चित्रित करके अपनी संकीर्णता का परिचय दिया है। उपर्युक्त लेख में पे्रमचन्द ने अपना पक्ष रखा है।
दरअसल, इस दृष्टि से देखने पर, प्रेमचन्द की सभी रचनाओं से किसी-न-किसी जाति की भावनाएँ आहत होने लगेंगी। प्रेमचन्द अपनी रचनाओं के जरिए स्वाधीनता-आन्दोलन में हिस्सेदारी कर रहे थे। इसे ही अपने जीवन एवं लेखन का लक्ष्य भी मानते थे। बावजूद इसके स्वाधीनता-संग्राम पर लिखी कहानियों में इसके नेताओं के ढुलमुल चरित्रों को उजागर करने में परहेज नहीं करते थे। 'गोदान’ में राय साहब जैसे काँग्रेसी नेताओं का जो चरित्र उभरकर आता है, उसे क्या कहा जा सकता है? दरअसल, भारतीय समाज के किसी तबके के दोष को पे्रमचन्द ने बख्शा नहीं है। यही उनकी रचनाओं की खूबी है।
बहरहाल, (1933) ज्योतिप्रसाद 'निर्मल’ और (2004) दलित साहित्य अकादमी के लेखकों की आहत भावनाओं की वजह में भी फर्क है। निर्मल को परेशानी थी कि प्रेमचन्द ने 'ब्राह्मणों को काले रंगों में चित्रित’ किया है। दलित साहित्य अकादमी के लेखकों ने चरित्र-चित्रण को लेकर फिलहाल कोई अरोप नहीं लगाया है। अलबत्ता 'कफन’ कहानी का पुनर्पाठ करते वक्त दलित लेखकों ने ऐसा आरोप लगाया था। ज्योति प्रसाद निर्मल और दलित साहित्य अकादमी के लेखकों की आहत भावनाएँ जिस रूप में प्रकट हुयी हैं; उससे क्या निष्कर्ष निकाला जा सकता है? 1933 में निर्मल ने लेख लिखकर, अपनी आहत भावनाओं को शान्त किया था, अपना विरोध दर्ज किया था। इकहत्तर साल बाद किताब जलाई जा रही है। हमारे समाज में लोकतान्त्रिक मूल्यों का कितना विकास या ह्रास हुआ है; क्या इस कसौटी पर परखना उचित नहीं होगा?
प्रेमचंद जी की रचनाएँ विचारणीए है, व्यक्ति की सोच उसे सकारात्मक या नकारात्मक रुप प्रदान करती है।
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