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गांधी का यूटोपिया और आधुनिक मानस -- राजीव रंजन गिरि

 गांधी का यूटोपिया और आधुनिक मानस

-- राजीव रंजन गिरि


हर बड़ा विचारक या नेता भावी समाज की रचना का सपना देखता है। यह स्वप्न उसकी समझ, चिंतन एवं दर्शन से निर्मित होता है। उसके इस यूटोपिया का परीक्षण उसके जीवन काल से शुरू होता है और कालांतर में भी होता रहता है। उसके यूटोपिया से वाद -विवाद- संवाद चलता रहता है। गांधीजी उन थोड़े दार्शनिक- नेताओं की श्रेणी में शुमार हैं , जो ऐसा कोई विचार नहीं देते जिसपर खुद अमल न कर सकते हों। भले ही वह विचार कितना भी महत्वपूर्ण हो। गांधीजी के हिसाब से उसका महत्व गौण है, अगर उसका सिद्धान्तकार खुद पहले उसे अपने जीवन में न उतारे। गांधीजी के मुताबिक शब्द और कर्म में एका नहीं होने पर शब्द नैतिक आभा खो देते हैं। मन, वचन और कर्म की का साझापन गांधी- चिंतन को ऊंचाई प्रदान करता है।
    गांधी का यूटोपिया क्या है? भावी भारत के लिए जो स्वप्न वे देख रहे थे, उसकी बुनियाद क्या है? जवाब होगा- ग्राम स्वराज। ग्राम स्वराज गांधी- दर्शन की बुनियाद है और बुलंदी भी। इसी के आधार पर भावी राष्ट्र का सुन्दर सपना देख रहे थे। इसे जमीन पर उतारने के लिए सकर्मक प्रयास भी कर रहे थे। अपने दौर के सभी लोगों से संवाद भी कर रहे थे।
     अनेक लोगों को दिक्कत भी इसी को लेकर होती है। गांव को लेकर। गांधीजी के अनुयायी माने - जाने वाले जवाहलाल नेहरू और महाड़ सत्याग्रह तक अपना नायक  समझने वाले-- जो बाद में उनके कटु आलोचक बने-- डॉ. आंबेडकर भी गांव पर आधारित इस यूटोपिया को नहीं समझ पाए थे। न सिर्फ पं. नेहरू और डॉ. अम्बेडकर बल्कि ज्यादातर 'आधुनिक' मानस गांधी के इस स्वप्न को समझने में नाकाफी साबित हो रहे थे। 'आधुनिक ज्ञान' से लैस दिमाग को गांव में जड़ता और जहालत के सिवा कुछ नहीं दिखता था। और गांधीजी थे कि गांव को केंद्र में रखकर ही स्वराज की कल्पना करते थे।

             सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने के पश्चात जब भी गांधीजी ने भारत के बारे में विचार किया है, गांव उनकी चिन्ता से ओझल नहीं हुए। एक तरफ गांव की दुरावस्था  सदा गांधी की चिंता के केंद्र में रहा, दूसरी तरफ उनके स्वप्न लोक 'ग्राम स्वराज' के कारण गांव -- गांधी जी का 'कल्पित गांव' -- उनके चिंतन के केंद्र में रहा।

       शारीरिक श्रम, सामुदायिक जीवन एवं प्रकृति निर्भरता ऐसे आयाम हैं, जो ग्रामीण जीवन में गाँधी जी को भाते थे। परन्तु ऐसा नहीं है कि उन्हें गांव, ग्रामीण लोग एवं ग्रामीण समाज में सबकुछ सुन्दर ही दिखता था। गांववासियों की "जड़ता" उन्हें नापसंद थी। इसी जड़ता के कारण छुआछूत जैसे भेदभाव कायम थे।इसीलिए गांधी इस जड़ता के खिलाफ थे। इस बिंदु पर गांधीजी एक स्तर पर "आधुनिक" मानस से संगत करते हैं तो दूसरे स्तर पर उससे सामना भी करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो  ग्रामीण लोगों की जड़ता की पहचान और मुखालफत के  मामले में गांधीजी नेहरू , अम्बेडकर सरीखे आधुनिक मानस के साथ हैं पर साथ ही वे इसमें परिष्कार की सम्भावना देख "कल्पित गांव" पर जोर देकर उनलोगों से भिन्न राह अख्तियार करते हैं। जिसे आधुनिक मानस असंभव मानकर ख़ारिज करता है, गांधी उसमें भी संभावना देखते हैं। इतिहासकार सुधीर चन्द्र  ने गांधी की शख्सियत को बिलकुल ठीक ही 'एक असंभव संभावना' कहकर सम्बोधित किया है।  ग्रामीण समाज के व्यापक आयामों में सिर्फ़ स्वच्छता पर केंद्रित होकर भी देखा जा सकता है कि इस बाबत गांधीजी के विचार क्या थे। इससे यह भी जाना जा सकता है कि उनके सपनों का गांव कैसा होना चाहिए।
            


      दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह से लेकर भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन की अगुवाई करते हुए गाँधी जी ने संघर्ष और रचना को एक-दूसरे का पूरक बना दिया था। उनके नेतृत्व में चले स्वतन्त्रता संघर्ष को तब तक नहीं समझा जा सकता, जब तक किसी भी आंदोलन के पश्चात आहूत रचनात्मक कार्यक्रम को एक दिशा में रखकर न देखा जाए।अपने रचनात्मक कार्यक्रम में अठारह आयामों को शामिल किया है। दूसरे शब्दों में कहें तो ये अठारह कार्यक्रम ही 'पूर्ण स्वराज्य' हासिल करने के वास्तविक और अहिंसक मार्ग हैं। इतना ही नहीं इनकी 'पूरी-पूरी सिद्धि ही सम्पूर्ण स्वतंत्रता' है। आशय यह कि ये  रचनात्मक कार्यक्रम साधन भी हैं और साध्य भी। इन्हीं महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में एक है- गांवों की सफाई। स्वच्छता के मामले में हमारे गाँव कैसे थे? देश के विभिन्न क्षेत्रों में भ्रमण करने वाले क्या कहता है? उन्होंने बताया है कि 'देश में जगह-जगह सुहावने और मनभावने छोटे-छोटे गाँवों के बदले हमें घूरे- जैसे गांव देखने को मिलते हैं।' इन गांवों के बारे में वे पूरी साफगोई से कहते हैं कि "बहुत से या यों कहिये कि करीब-करीब सभी गांवों में घुसते समय जो अनुभव होता है, उससे दिल को ख़ुशी नहीं होती।" इसकी वजह क्या है? गांव को केंद्र में रखकर अपना स्वप्न रचनेवाले गांधीजी मौज़ूद गाँवों के बारे में ऐसा ख़्याल क्यों रखते हैं? कारण है अतिशय गन्दगी और इससे जनित बदबू। उन्होंने लिखा है कि "गाँव के बाहर और आसपास इतनी गन्दगी होती है और वहाँ इतनी बदबू आती है कि अक्सर गाँव में जानेवाले को आँख मूंदकर और नाक दबाकर जाना पड़ता है।" प्रसंगवश, दो दशकों से अधिक समय बाहर रहने के पश्चात जब 1915 में गांधीजी ने स्वदेश वापसी की और अपने राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले के आदेश पर साल भर भारत-भ्रमण किया; सार्वजनिक प्रश्नों पर मौन रखा। एक वर्ष बाद बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उदघाटन के अवसर पर अपना पहला सार्वजनिक भाषण 4 फरवरी 1916 को किया। इस बहुचर्चित भाषण में भी उन्होंने स्वच्छता का प्रश्न खड़ा किया और इसे स्वराज के साथ जोड़ा। गांव और शहर की गलियां ही नहीं, बड़े-बड़े मंदिरों के आसपास की बदबूदार गंदी गलियों की तरफ ध्यान आकृष्ट करते हुए उन्होंने कहा था कि "स्वराज की दिशा में बढ़ने के लिए हमें बिना शक ये सारी बातें सुधारनी चाहिए।"
  
   प्रश्न उठता है कि हमारे गाँवों की ऐसी दशा क्यों थी? गांधीजी के मुताबिक इसका कारण है, 'श्रम और बुद्धि के बीच अलगाव।' इसीलिए हम 'गाँवों के प्रति लापरवाह हो गए हैं।' हमारी सभ्यता-संस्कृति का जिस दिशा में विकास हुआ है उसमें मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच खाई बढ़ती गई है। आलम यह है कि मानसिक श्रम को शारीरिक श्रम की तुलना में श्रेष्ठ भी मान लिया गया है। नतीज़तन बौद्धिक श्रम करने वालों को श्रेष्ठ और शरीर श्रम करनेवालों को हेय मानने की समझ विकसित हुई है। गांधीजी इस श्रम-विभाजन और इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न लापरवाही को 'गुनाह' का दर्ज़ा देते है।

टिप्पणियाँ

  1. सही . पर आज भी श्रम का महत्त्व बुद्धि से कम हैं .

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  2. पर आज भी श्रम का महत्त्व कम हैं

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  3. पर आज भी श्रम को कमतर माना जाता हैं

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  4. गाँधीजी के ग्राम स्वराज के सपनें की तथ्यपरक प्रस्तुति। गांधीजी के सपनों का गाँव, जड़ता और जहालत का केंद्र नहीं था।वे इससे मुक्त गाँव की वकालत करते थे। इनसे मुक्त होने पर ही ग्राम स्वराज की कल्पना पूरी हो सकती हैं।

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  5. गाँधी जी ने शारीरिक और मानसिक श्रम पर जो टिप्पणी की उसकी अर्थवत्ता को नकारा नहीं जा सकता लेकिन हिंदुस्तान के गांवों के सामंती चरित्र पर उनका क्या विश्लेषण है, यह जानना भी चिंतन के नए वातायन खोलेगा।

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