सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अलेक्सान्द्र सेर्गेयेविच पुश्किन की कविताएं

 अलेक्सान्द्र सेर्गेयेविच पुश्किन की कविताएं :   समय और सच का ऐन्द्रीय सत्यापन -- राजीव रंजन गिरि उन्नीसवीं सदी के जिन रचनाकारों ने देश-काल की सीमाओं को लाँघकर विश्व-साहित्य में अपनी पहचान बनायी थी, उनमें रूसी रचनाकार अलेक्सान्द्र सेर्गेयेविच पुश्किन भी एक थे। पुश्किन का रचनात्मक देश-कालजीवीपन ही उन्हें कालजयी बनाता है; साथ ही, देशकाल का गहरा बोध भी कराता है। पुश्किन के दौर का साहित्यिक माहौल 'उत्तर क्लासीसिज़्म’ और 'रोमांटिसिज़्म के सौन्दर्य-बोध’ से प्रभावित था। हालाँकि रूसी क्लासीसिज़्म में स्थानीय विशिष्टता मौजूद थी फिर भी फ्रांसीसी क्लासीसिज़्म के दर्शन और सौन्दर्य-बोध का भी गहरा प्रभाव था। रूसी साहित्य में 'यूरोपीय सौन्दर्यशास्त्र’ के प्रभाव से नयी विधाओं व विषय-वस्तु के साथ नया प्रयोग करने की ज़मीन तत्कालीन क्लासीसिज़्म ने तैयार की। फलस्वरूप रूसी कविता का ऐतिहासिक विकास एवं व्यापक प्रसार सम्भव हुआ। रूसी काव्य के विकास के एक दौर के बाद क्लासीसिज़्म की सीमाएँ स्पष्ट होने लगीं। तत्कालीन रचनाकारों ने 'क्लासीसिज़्म’ को रचनात्मकता में बाधा मानकर इसकी सीमाओं में बँधे रहन...

समकालीनों पर शमशेर

 समकालीनों पर शमशेर :  राजीव रंजन गिरि प्रगतिवादी कविता के महत्त्वपूर्ण क वि शमशेर बहादुुर सिंह, अपनी कविता में, शब्दों की मितव्ययिता के लिए जाने जाते हैं। कम-से-कम शब्दों में, कविता का पूरा वितान खड़ा कर देना, उनकी खासियत है। 'कवियों के कवि’ माने जाने वाले शमशेर के भीतर बेहद संवेदनशील समीक्षक होने का सबूत मिलता है, अपने समकालीनों के बारे में जाहिर की गयी उनकी राय से। छायावादोत्तर कविता में, एक साथ, इतने महत्त्वपूर्ण कवि इसी दौर में थे। अपने समकालीनों के बारे में शमशेर की राय जानने-पढऩे का मौका मुहैया कराया है, 'उद्भावना’ के शमशेर बहादुर सिंह विशेषांक, 'होड़ में पराजित काल’ ने। इस विशेषांक का सम्पादन किया है कवि-समीक्षक विष्णु खरे ने। इस विशेषांक में शमशेर का एक निबन्ध 'एक बिल्कुल पर्सनल एसे’ प्रकाशित हुआ है। इसमें शमशेर अपने सखा कवि नागार्जुन के बारे में लिखते हैं कि 'मेरे कुछ प्रिय हिन्दी कवि ...इनमें सबसे पहले, सबसे पहले मेरे ध्यान में नागार्जुन आते हैं। क्यों? मैं सोचता हूँ, तो ऐसा मालूम होता है कि इसकी वजह उनका यह खरा और सच्चा-सीधा व्यक्तित्व है, जिसके कण-कण से...

क्षमा शर्मा का " नेम प्लेट " : नये यथार्थ-बोध की कहानियाँ

      क्षमा शर्मा का " नेम प्लेट "  :     नये यथार्थ-बोध की कहानियाँ                                           ---- राजीव रंजन गिरि पिछले कु छ दशकों से हर क्षेत्र में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ी है। स्त्रियों ने अपने शोषण को पहचानकर शोषणमूलक संरचना को दरकाया भी है। इसके साथ शोषणकारी पितृसत्ता ने ऊपरी तौर पर खुद को बदला है, लेकिन अपने मूल चरित्र में ज्यादा फेरबदल नहीं की है। गौर करने पर पितृसत्ता का चरित्र ज्यादा जटिल और विकराल दिखता है। बदलाव के साथ गलबहियाँ कर शोषणमूलक संरचना ने शोषण का नया-नया तरीका ईजाद किया है। इसने तकनीक के आविष्कार से रिश्ता स्थापित कर, अपने हित में इस्तेमाल कर, शोषण जारी रखने की कोशिश की है। कथाकार क्षमा शर्मा ने अपने कहानी-संग्रह 'नेम प्लेट’ में स्त्रियों के जीवन व शोषण के विविध आयामों को चित्रित किया है। इस संग्रह की ज्यादातर कहानियाँ छोटी हैं, लेकिन अपने मकसद में सफल। ये कभी-कभी धीरे से झटका देती हैं तो कभी 'नावक ...

लमही में प्रेमचन्द : राजीव रंजन गिरि

  लमही में प्रेमचन्द : राजीव रंजन गिरि  प्रेमचन्द के गाँव लमही के नाम पर लखनऊ से एक त्रैमासिक पत्रिका शुरू हुई है। 'लमही’ के दूसरे अंक (अक्टूबर-दिसम्बर) में वरिष्ठ आलोचक भवदेव पांडेय ने फिराक गोरखपुरी से सम्बन्धित कुछ तथ्यों पर प्रकाश डाला है। प्रेमचन्द द्वारा स्थापित 'सरस्वती प्रेस’ में कमलापति मिश्र काम करते थे। काम के दौरान उन्हें प्रेमचन्द के सौतेेले भाई बाबू महताब राय का भी सान्निध्य मिला। कमलापति मिश्र ने 'लमही के दो रत्न’ शीर्षक संस्मरण में दोनों भाइयों क ो याद किया है। इनके मुताबिक बाबू महताब राय शुरुआती दौर में, बस्ती में बन्दोबस्त के महकमे में काम करते थे। थोड़े दिनों बाद बन्दोबस्त महकमा टूट जाने के कारण वे बेरोजगार हो गये। ''महताब राय प्रकृत्या ऐसे आत्माभिमानी थे कि किसी के समक्ष न अपनी असहायता प्रकट करते, न नौकरी के लिए किसी सिफारिश आदि का सहारा लेने का प्रयत्न करते। महताब राय को अपने कर्मण्य स्वभाव, दृढ़ निश्चय और विश्वसनीयता पर अगाध विश्वास था।’’  बन्दोबस्त विभाग में काम के दौरान इनका सम्बन्ध आई.सी.एस. ऑफिसर आर्थर से बन गया। बेरोजगार होने के थोड़े ...

साम्प्रदायिकता से संघर्ष और प्रेमचन्द : राजीव रंजन गिरि

  साम्प्रदायिकता से संघर्ष  और  प्रेमचन्द   :   राजीव रंजन गिरि स्वाधीनता-आन्दोलन के दौर में साम्प्रदायिक समस्या एक बड़ी चुनौती के तौर पर सामने थी। तरक्कीपसन्द ख्याल के नेता, बुद्धिधर्मी, पत्रकार, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता सभी अपने-अपने तरीके से इस भयावह चुनौती का सामना कर रहे थे। हिन्दी-उर्दू के अमर कथाकार प्रेमचन्द ने भी इस समस्या को सामने विश्लेषित करने और इसके मुखर विरोध में अपनी भागीदारी दर्ज कराई। प्रेमचन्द ने हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों की जटिलता और इसे साम्प्रदायिक रूप देने की कोशिशों पर न सिर्फ कथा लिखी बल्कि एक जागरूक पत्रकार की तरह इन पर लेख और टिप्पणियाँ भी लिखीं। इन लेखों, टिप्पणियों में प्रेमचन्द का साम्प्रदायिकता के विरुद्ध रुख स्पष्टतया झलकता है। बीस-तीस के दशक में मुल्क की आबोहवा को प्रभावित करने वाली तमाम घटनाओं पर प्रेमचन्द की पैनी निगाह लगी हुई थी। इनमें से जो भी खतरा दिखता था, वे उस पर गहरी चोट करते थे। मुस्लिम-लीग और हिन्दू महासभा के अलावा कई छोटे-छोटे संगठन थे जो अपना-अपना संकीर्ण हित साधने के मकसद से देश की आबोहवा ...

दलित, गांधी और प्रेमचन्द : राजीव रंजन गिरि

दलित, गांधी और प्रेमचन्द : राजीव रंजन गिरि दलित आन्दोलन और दलित साहित्य के विकास के साथ जिन दो व्यक्तियों पर सबसे ज्यादा सवाल उठने शुरू हुये, वे हैं– महात्मा गांधी और प्रेमचन्द। गांधी और प्रेमचन्द के कुछ विचारों से इत्तेफाक न रखने के बावजूद इसे स्वीकार करने में परेशानी नहीं होनी चाहिये कि गांधी तत्कालीन राष्ट्रीय स्वाधीनता-आन्दोलन के सबसे बड़े नेता थे और प्रेमचन्द सबसे बड़े कथाकार। संयोगवश, गांधी और प्रेमचन्द दोनों गैर-दलित थे। इतिहास के उस दौर में, गांधी और प्रेमचन्द अपने समय व समाज के लोगों में दलित तबके के प्रति अपनी पक्षधरता के लिए 'बदनाम’ थे। इस स्थिति तक, इन दोनों के विचारों के पहुँचने में, क्रमिक विकास दिखता है। हालाँकि इस विकास में तत्कालीन परिस्थितियों के महत्त्व को भी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। गांधी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन के  समय स्वाधीनता-आन्दोलन के नेताओं से जब अछूतोद्धार आन्दोलन का आह्वान किया तो ज्यादातर नेताओं को नागवार लगा था। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में इसे स्वीकार भी किया है। गोया कि पूरे देश को आजाद कराने जैसे बड़े मकसद के सामने गांधी के अछूत...

प्रेमचन्द का प्रयोजन : राजीव रंजन गिरि

 प्रेमचन्द का प्रयोजन : राजीव रंजन  गिरि  उन्नीस सौ छतीस में प्रगतिशील लेखक संघ के बनने से पहले लेखकों का कोई संगठन नहीं था। उसके पहले किसी-किसी मुद्दे पर कुछेक लेखक एकजुट होते थे, पर यह एकजुटता संगठन का रूप नहीं ले पाती थी। मसलन, भाषा के सवाल पर उन्नीसवीं सदी के हिन्दी लेखकों का एका देखा जा सकता है। परन्तु यह एका संगठन नहीं था। उस दौर में, किसी खास लेखक के व्यक्तित्व से प्रभावित रचनाकारों का एक अनौपचारिक समूह दिखता है। उदाहरण के तौर पर हरिश्चन्द्र, जिन्हें लोगों ने भारतेन्दु कहकर सम्मान दिया था, के आभा मंडल से प्रभावित लेखकों का एक समूह था– जिसे 'भारतेन्दु मंडल’ के नाम से जानते हैं। जैसा कि इसके नाम से ही जाहिर है, यह संगठन नहीं था। संगठन एक आधुनिक अवधारणा है। 'प्रगतिशील लेखक संघ’ इस मायने में एक संगठन था। इसके उदय को भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के व्यापक सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है। इसके जन्म का भौतिक आधार राष्ट्रीय आन्दोलन ने ही तैयार किया था। पेरिस के 'पेन कान्फ्रेन्स’ की तर्ज पर सज्जाद जहीर, मुल्क राज आनन्द सरीखे लोगों ने, लन्दन में 'प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन...

समकालीन कविता में 'या’

 समकालीन कविता में 'या’ :  राजीव रंजन गिरि  कवि-कथाकार शैलेय का कविता-संग्रह चौंकाता है, अपने नाम से। देखते ही लगा यह भी कोई नाम है कविता-संग्रह का! 'या’ शीर्षक यह संग्रह अन्तिका प्रकाशन से छपा है। इस संग्रह में कई बेहतरीन कविताएँ हैं। शैलेय को बिल्कुल ही कम शब्दों में अपनी बात कहने का हुनर हासिल है। इस संग्रह की शीर्षक कविता 'या’ को देखें- 'हताश लोगों से / बस / एक सवाल / हिमालय ऊँचा / या / बछेन्द्रीपाल?’ शैलेय की कविताएँ किसी भी तरह की हताशा के बरअक्स उत्साह और सपने से रची गयी हैं। कवि वीरेन डंगवाल ने बिल्कुल ठीक कहा है कि संग्रह की लोकप्रिय कविता 'या’ अपनी कुल जमा पाँच अति सामान्य पंक्तियों में एक साथ सवाल के बहाने कई जवाब और कई चुनौतियों को उठाती है और पाठक को ऐसी तार्किक-गरिमामय आश्वस्ति प्रदान करती है जिसका छिछली आशावादी, सरलीकृत, बाज़ारटेकू, प्रतिरोधी कविताओं में कोई सानी नहीं है। इन पंक्तियों में केवल वाग्वैदग्ध्य नहीं। उनके मानवीय सामाजिक अर्थ का वृत्त कविता के समाप्त होने के बाद भी निरन्तर बढ़ता जाता है और राजनीतिक आशयों समेत अर्थ के कई धरातल छूता है। स...

हिन्दी में 'दोआबा’

  हिन्दी में 'दोआबा’ :  राजीव रंजन गिरि  'दोआबा’ (सम्पादक - ज़ाबिर हुसैन) का पाँचवाँ अंक खानाबदोश जातियों पर विशेष सामग्री प्रकाशित करने के लिए यादगार रहेगा। इनसानों का वह समुदाय जो अपने भोजन को पीठ पर लेकर एक जगह से दूसरी जगह घूमता रहे, खानाबदोश जातियों के दायरे में आता है। ब्रिटिश हुकूमत ने इन लोगों को अपराधी मानकर इनके लिए 1871 में एक खतरनाक 'अपराधी जनजाति कानून’ बनाया। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान अक्टूबर 1936 में जवाहरलाल नेहरू ने इस कानून की भत्र्सना करते हुए कहा था– ''अपराधी जनजाति कानून के विनाशकारी प्रावधान को लेकर मैं चिन्तित हूँ। यह नागरिक स्वतन्त्रता का निषेध करता है। इसकी कार्य-प्रणाली पर व्यापक रूप से विचार किया जाना चाहिए और कोशिश की जानी चाहिए कि इसे संविधान से हटाया जाए। किसी भी जनजाति को 'अपराधी’ करार नहीं दिया जा सकता। यह सिद्धान्त न्याय और अपराधियों से निबटने के किसी भी सभ्य सिद्धान्त से मेल नहीं खाता।’’ आजादी मिल गयी परन्तु इन लोगों के खिलाफ बना नृशंस कानून मामूली फेरबदल के साथ 'आदतन अपराधी कानून’ 1952 के तौर पर कायम रहा। गद्यकार जाबिर हुस...

भिखारी ठाकुर की कला : राजीव रंजन गिरि

  भिखारी ठाकुर की कला : राजीव रंजन गिरि 'भोजपुरी’ को भले ही संविधान की आठवीं अनुसूची में मान्यता नहीं मिली है और साहित्य अकादेमी, भोजपुरी के रचनाकारों को पुरस्कृत-सम्मानित नहीं करती है, लेकिन इस सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि भोजपुरी दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी द्वारा बोली जाने वाली लोकभाषा (बोली) है। भिखारी ठाकुर इसी भाषा के श्रेष्ठ लोक-कलाकार थे। इनकी एक 'नाच मंडली’ थी। जहाँ इनकी मंडली द्वारा 'नाच’ प्रस्तुत किया जाता था, बकौल राहुल सांकृत्यायन, दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह हजार की संख्या में दर्शक आते थे। यह खुशी की बात है कि साहित्य अकादेमी ने 'भारतीय साहित्य के निर्माता’ शृंखला के अन्तर्गत भिखारी ठाकुर के जीवन और रचना-संसार पर मोनोग्राफ छापा है। इसे भोजपुरी के एक चर्चित साहित्यकार तैयब हुसैन 'पीडि़त’ ने लिखा है। भिखारी ठाकुर का जीवन और कला-कर्म साहित्यकारों को आकर्षित करता रहा है। कथाकार संजीव ने इन पर 'सूत्रधार’ उपन्यास लिखा है। नाटककार हृषिकेश सुलभ ने 'बटोही’ और कथाकार मधुकर सिंह ने 'कुतुब बाजार’ नाटक लिखा है। इन नाटकों की सफल प्रस्तुति भी हो चुकी ...

हिन्दी सेवी संस्था कोश

हिन्दी सेवी संस्था कोश : राजीव रंजन   गिरि  हिन्दी के विस्तार और विकास के लिए अखिल भारतीय स्तर पर अनेक संस्थाएँ काम कर रही हैं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं इसे लोकप्रिय बनाने में इन संस्थाओं का अहम योगदान है। वीरेन्द्र परमार ने व्यक्तिगत पहल से, हिन्दी में पहली बार संस्था कोश बनाया है। 'हिन्दी सेवी संस्था कोश’ का प्रकाशन भी इन्होंने खुद किया है। हिन्दी में प्रकाशकों की बढ़ रही संख्या के बावजूद इस महत्त्वपूर्ण कोश को लेखक द्वारा प्रकाशित करना, प्रकाशकों के चरित्र पर सवालिया निशान लगाता है। 'हिन्दी सेवी संस्था कोश’ (1091/टाइप-5, एन.एच. 4, फरीदाबाद-121001) में हिन्दी भाषा एवं देवनागरी लिपि के प्रचार-प्रसार और उन्नयन हेतु कार्यरत एक सौ तीन सरकारी- गैर-सरकारी हिन्दी सेवी संस्थाओं, संगठनों, विभागों आदि का प्रामाणिक विवरण पेश किया गया है। इस कोश को प्रामाणिक एवं अद्यतन बनाने के लिए वीरेन्द्र परमार ने इस दिशा में काम करने वाली संस्थाओं, संगठनों, विभागों आदि से सम्पर्क एवं पत्राचार कर कार्य-विवरण हासिल किया। इन्हीं विवरणों के आधार पर यह कोश सम्भव हो सका है। जाहिर है, यह एक दुरूह क...

सारसुधानिधि की रचनाएँ : राजीव रंजन गिरि

  सारसुधानिधि की रचनाएँ : राजीव रंजन गिरि हिन्दी आलोचना में उन्नीसवीं सदी के उत्तराद्र्ध के साहित्य के बारे में आजकल खूब बहसोमुबाहसा हो रहा है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और बाद डॉ. लक्ष्मी सागर वाष्र्णेय ने उन्नीसवीं सदी के उत्तराद्र्ध के साहित्य पर- जिसे भारतेन्दु युग के नाम से भी जाना जाता है– विस्तारपूर्वक लेखन किया था। इन्हीं दोनों लेखकों की मान्यताओं और लेखन को ज्यादातर लोग अपना स्रोत बनाते रहे हैं। कालान्तर में, डॉ. रामविलास शर्मा ने उस दौर के साहित्य को गम्भीरता एवं परिश्रमपूर्वक देखा-परखा। इन्होंने अठारह सौ सत्तावन की जटिल परिघटना को विश्लेषित करते हुए, 'हिन्दी नवजागरण’ की अवधारणा प्रस्तुत की। डॉ. शर्मा ने अपनी इस अवधारणा को चार चरणों में विभक्त किया। इनके मुताबिक अठारह सौ सत्तावन के साथ विकसित 'हिन्दी नवजागरण’ का दूसरा चरण भारतेन्दु-युग का साहित्य, तीसरा चरण महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनके सहयोगियों का कार्यकाल और चौथा चरण निराला का साहित्य है। रामविलासजी द्वारा प्रस्तावित इस महत्त्वपूर्ण अवधारणा पर सवाल भी उठते रहे हैं। नामवर सिंह, वीरभारत तलवार, रमेश रावत और पुरुषो...

भारतेन्दु-युग और इतिहास-निर्माण : राजीव रंजन गिरि

  भारतेन्दु-युग और इतिहास-निर्माण : राजीव रंजन गिरि   हिन्दी आलोचना में सर्वाधिक वाद-विवाद भक्ति-आन्दोलन के सन्दर्भ में होता रहा है। करीब-करीब सभी महत्वपूर्ण आलोचकों ने भक्ति-आन्दोलन के उदय की पृष्ठभूमि, उसके मुख्य स्वर और समाप्ति के लिए जिम्मेवार कारकों को अपने-अपने नजरिये देखा-परखा एवं विश्लेषित किया है। पिछले पन्द्रह-बीस वर्षों से हिन्दी-आलोचना में उन्नीसवीं सदी (खासकर भारतेन्दु-युग) के साहित्य के सन्दर्भ में बहस-मुबाहिसा बढ़ा है। हिन्दी के पहले व्यवस्थित इतिहासकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और बाद में डॉ. लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय ने उन्नीसवीं सदी के साहित्य पर लेखन किया था। इन्हीं दोनों लेखकों की मान्यताओं और लेखन को स्रोत मानकर ज़्यादातर लोग अपनी राय देते थे। डॉ. रामविलास शर्मा ने उस दौर के साहित्य पर गंभीरता एवं परिश्रम पूर्वक काम किया। इन्होंने भारतेन्दु-युग की रचनाओं को परखकर, उस दौर को 'हिन्दी नवजागरण’ का आरम्भ माना। साथ ही इस 'हिन्दी नवजागरण’ को चार चरणों में देखा। रामविलास जी की इस अवधारणा पर डॉ. नामवर सिंह ने कुछ सवाल खड़े किए। हालांकि नामवर जी ने खुद उस दौर पर ...

राधा के वस्तुकरण की प्रक्रिया : राजीव रंजन गिरि

  राधा के वस्तुकरण की प्रक्रिया : राजीव रंजन गिरि पितृसत्तात्मक वैचारिक सरणियाँ स्त्री को वस्तु बनाने की कोशिश करती रही हैं। विभिन्न धार्मिक, साहित्यिक, राजनीतिक 'टेक्स्ट’ में इसे देखा जा सकता है। ऊपरी तौर पर सहज दिखने वाली इन पुस्तकों के पाठों में अन्तर्निहित विचारों को स्त्रीवादी अध्येताओं ने विश्लेषित कर बताया है कि ये विचार स्त्री को वस्तु में तब्दील करने में किस कदर सक्रिय रहे हैं। स्त्रीवादी बुद्धिधर्मियों ने यह भी बताया है कि न सिर्फ उक्त 'टेक्स्ट’ के जरिये स्त्री-वस्तुकरण की प्रक्रिया जारी रही बल्कि इसके व्याख्याकारों ने भी इसे बल प्रदान किया। इन व्याख्याकारों में विभिन्न विचारधारा से वास्ता रखने वाले लोग शामिल हैं। अलग-अलग विचारधारा से ताल्लुकात के बावजूद स्त्री के सन्दर्भ में इन सबकी व्याख्याएँ कमोबेश एक-सी हैं। इन व्याख्याकारों ने उक्त ग्रन्थों, किस्मों की व्याख्या कर, उनके स्त्री-चरित्रों को ग्लैमराइज कर स्त्री-विरोधी मानसिकता पर पर्दा डालने का काम किया। सम्भव है, यह उनकी दृष्टिगत कमजोरी के कारण हुआ हो। परन्तु कई दफा ऐसा सायास भी किया जाता है। स्त्रीवादी समीक्षक अनु...

आरम्भिक आधुनिकता की तलाश

 आरम्भिक आधुनिकता की तलाश : राजीव रंजन गिरि आधुनिकता के सन्दर्भ में विचार करते समय यह सवाल अक्सर सामने आता है कि क्या आधुनिकता देश -काल और भूगोल निरपेक्ष होती है या स्थान विशेष के परिप्रेक्ष्य में इसकी अलग से शिनाख्त सम्भव है? यह सवाल वस्तुत: इस धारणा से उपजा है, जिसमें आधुनिकता को पाश्चात्य निर्मिति माना जाता रहा है और उसी के आधार पर पूरी दुनिया में आधुनिकता की पहचान की जाती रही है। इस सवाल का एक पहलू औपनिवेशिकता से जुड़ा हुआ है। पश्चिम की साम्राज्यवादी-औपनिवेशिक शक्तियों ने एशिया और अफ्रीका समेत दुनिया के अनेक हिस्सों को गुलाम बनाया और इस अत्याचार को ढकने के लिए दार्शनिकता की जिस चादर का इस्तेमाल किया, उसके तन्तुओं को पश्चिम केन्द्रित आधुनिकता के विचार से ताकत मिलती थी। दूसरे शब्दों में, पश्चिम ने औपनिवेशिक शासन के जरिये किये जा रहे शोषण को, शोषितों को आधुनिक बनाने का, उपक्रम बताया। आज इस आधुनिकता का छद्म स्पष्ट हो चुका है, जबकि इसके बरअक्स विभिन्न स्थानों में पल्लवित-पुष्पित हुए अग्रगामी विचारों की पहचान की जा चुकी है। इस तरह आज किसी एकाश्मक (मोनोलिथ) आधुनिकता के बजाय अनेक आधुनि...

'कबीर : साखी और सबद’

  अस्मितावादी अतिचार से मुखामुखम : राजीव रंजन गिरि हिन्दी आलोचना में सर्वाधिक बहस-मुबाहिसा भक्ति-आन्दोलन के सन्दर्भ में हुआ है। करीब-करीब सभी महत्त्वपूर्ण आलोचकों ने भक्ति-आन्दोलन की प्रकृति और किसी-न-किसी भक्त कवि को व्याख्यायित करने की कोशिश की है। इन सभी व्याख्याओं का खास सांस्कृतिक-राजनीतिक आशय है। आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने भक्ति-आन्दोलन के चरित्र, खासकर कबीर की कविता पर विचार किया है। इनमें कबीर के सम्बन्ध में प्रचलित मान्यताओं से मुखामुखम कर नयी स्थापना प्रस्तुत की है। इसी क्रम में डॉ. अग्रवाल ने कबीर की रचनाओं का एक संचयन 'कबीर : साखी और सबद’ तैयार किया है। इसमें विषय के मुताबिक कबीर की कविताओं को नौ खंडों में पेश किया गया है। गौरतलब है कि इस संकलन में सम्पादक ने अन्य कई लोगों की तरह अपनी सुविधा और सोच के मुताबिक कबीर की 'परेशान’ करने वाली कविताओं को 'प्रक्षिप्त’ करार देकर हटाया नहीं है। कबीर ही नहीं लगभग सभी भक्त कवियों की पॉलिटिकली करेक्ट दिखाने के लिए कई आलोचकों/ संकलनकर्ताओं ने उनकी 'परेशान’ करने वाली कविताओं को किसी पुराने कवि का भावानुवाद या प्रक्षिप्त ब...