स्त्री - विमर्श : एक टिप्पणी-- राजीव रंजन गिरिस्त्री-विमर्श हिन्दी साहित्य के बहस-मुबाहिसे में केन्द्रीय विमर्श के तौर पर शुमार हो चुका है। कुछ लोगों का तो यहाँ तक मानना है कि फिलहाल यह साहित्य का 'विजेता विमर्श' है। यही वजह है कि इस विमर्श के विकास और व्याप्ति को देखकर नाक-भौंह सिकोडऩे वाले लोग भी कुछ किन्तु-परन्तु भले ही लगाएँ, पर सीधे तौर पर नकारने की बात नहीं कर पाते। साहित्य की परिधि में बढ़ते विमर्श को देखकर जो लोग घबराते हैं, असल में वे अपनी अधूरी समझ का ही परिचय देते हैं। समय के साथ कदम-ताल न मिलाकर, अपनी पुरानी कसौटी पर साहित्य में आने वाले विमर्श या विमर्शों के साहित्य को परखने की हास्यास्पद कोशिश करते प्रतीत होते हैं। अपनी समझ मौजूदा समय के हिसाब से नहीं ढालने का ही नतीजा है यह कहना, कि इन विमर्शों ने साहित्य का दायरा संकुचित बनाया है और संकीर्ण भी। जबकि सच्चाई तो यह है कि भक्ति-आन्दोलन और प्रगतिशील-आन्दोलन के दौर के बाद, विमर्शों के इस दौर में बड़े पैमाने पर समाज और साहित्य के हाशिए के तबके ने अपनी भागीदारी और हिस्सेदारी दर्ज करायी है। लिहाजा यह कहा जा सकता है कि विमर्शों के आने से साहित्य के लोकतन्त्र का विकास हुआ है और विस्तार भी।साहित्य और विमर्श के बीच के अन्त:सम्बन्ध को और स्पष्ट करने के लिए राजनीति शास्त्री प्रो. रजनी कोठारी की, लोकतन्त्र और जाति-सम्बन्धी अवधारणा की, मदद ली जा सकती है। प्रो. कोठारी की स्थापना को, इस सन्दर्भ में बदलकर कहा जा सकता है कि विमर्शों ने साहित्य की परिधि (के सबॉल्टर्न) का साहित्यीकरण किया है। इसे विमर्शों का साहित्यीकरण भी कहा जा सकता है। इस प्रक्रिया में साहित्य न तो संकीर्ण हुआ है और न ही संकुचित; बल्कि साहित्य की व्याप्ति का विकास हुआ है।मौजूदा स्त्री-लेखन में दो तरह की रचनाकार शामिल हैं। एक वे जो खुद को 'विमर्श' से जोड़कर न देखे जाने का इसरार करती हैं और दूसरी वे, जो अपने को स्त्री-विमर्श से सम्बद्ध मानती हैं। इन दोनों की रचनाओं के समुच्चय से वर्तमान स्त्री-लेखन की सूरत और सीरत बनती है। बहरहाल, स्त्री-विमर्श के कारण ही स्त्री-लेखन की बुनियाद का निर्माण करने वाली रचनाकारों की तरफ व्यापक पैमाने पर ध्यान गया है। इस सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि मौजूदा स्त्री-विमर्श की जड़ें गहरी हैं। आरम्भिक स्त्री-रचनाकारों के बारे में अज्ञान और उदासीनता हमारे समाज में मौजूद पितृसत्ता की अहिंसक हिंसा का सबूत है। इसी का परिणाम है कि निकट अतीत की सीमान्तनी उपदेश की महान रचनाकार के बारे में ठीक-ठीक पता नहीं चल पाया है। उन्नीसवीं सदी की यह लेखिका आज भी 'एक अज्ञात हिन्दू औरत' के तौर पर ही जानी जाती हैं। बीसवीं सदी की कहानीकार राजेन्द्रबाला घोष भी लम्बे समय तक 'एक बंग महिला' के नाम से जानी जाती रहीं! स्त्रियों को उनके नाम से, संज्ञा से, वंचित करना पितृसत्ता की धूर्तता भरी अहिंसक हिंसा का ही प्रमाण है और परिणाम भी।स्त्री-विमर्श के दौर से पहले की स्त्री-रचनाशीलता को सामने लाना, स्त्री-लेखन की, हिन्दी में सैद्धान्तिकी विकसित करना और विभिन्न रचनाकारों की रचनाओं का स्त्रीवादी मूल्यांकन करने की जिम्मेदारी, स्त्री-विमर्श के पैरोकारों पर ही है। ऐसा करने पर एक तरफ गुमनाम, अनाम स्त्री-रचनाकार सामने आएँगी जो मौजूदा स्त्री-लेखन की इमारत की नींव में दबी पड़ी हैं। इससे स्त्री-लेखन की विरासत का पता चलेगा। दूसरी तरफ, स्त्री-विमर्श को 'बाहर' से आया मानने वालों को जवाब भी मिल जायेगा। ऐसे लोगों को पता चल जाएगा कि स्त्री-विमर्श की गहरी देशी जड़ें हैं। ये इसी देश की मिट्टी-पानी में विकसित हुई है। पितृसत्ता के अलमबरदारों ने इसे दबाने-कुचलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। प्रसंगवश, मौजूदा स्त्री-विमर्श का विरोध करने वाले कई लेखक अपने को चाहे जितना लोकतान्त्रिक बता लें, स्त्रीवादी सैैद्धान्तिकी के तहत मूल्यांकन करने पर, इनकी रचनाओं में अन्तर्निहित पितृसत्ता के विभिन्न पहलू सामने आएँगे। केट मिलेट ने "सेक्सुअल पॉलिटिक्स" में पश्चिम के बड़े रचनाकारों को विश्लेषित किया था, वैसा करने पर हिन्दी के कई बड़े रचनाकारों के "जादुई यथार्थवाद" का जादू भी दरक जाएगा।हिन्दी में जब-तब स्त्री-लेखन की विरासत की चर्चा पढऩे-सुनने को मिलती है। थेरी गाथा की विश्वारा, अपाला, उव्विरी; संस्कृत-प्राकृत की विज्जका, रेवा; भक्तिकाल की मीरा, सहजो, अक्क-महादेवी और आधुनिक काल की महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, उषादेवी मित्र इत्यादि की चर्चा होती है। पर स्त्री रचनाशीलता तब तक अपनी सम्पूर्णता में सामने नहीं आ सकती, जब तक इन 'लिखित' रचनाओं की रचनाकारों के साथ-साथ 'वाचिक' परम्परा की चन्द्रावली, लाची, भगवती सरीखी महान पर गुमनाम सर्जकों को सामने न लाया जाये। हिन्दी में ऐसी कई कोशिशें हुयी भी हैं। ज्योति प्रसाद निर्मल के सम्पादन में प्रकाशित स्त्री कवि कौमुदी इनमें अहम है। इसकी भूमिका में डॉ. रमाशंकर शुक्ल रसाल ने एक खास बात की ओर ध्यान दिलाया है। बकौल डॉ. रसाल, 'हिन्दी कवियों की वंश-परम्परा से न तो कवि श्रेणी ही चलती है और न काव्य-रचना ही प्रगतिशील होती है। उर्दू के समान उनमें कवियों के गुरु-शिष्य परम्परा के साथ भी कवि-श्रेणी और काव्य-रचना की गति नहीं पायी जाती। रानी कवियों में कुछ ऐसे वंश हैं जिनमें वंश परम्परा के साथ कविता करने वाली रानियों की भी परम्परा चली है अर्थात् एक वंश में उत्पन्न होने वाले रानियों ने काव्य रचना-सम्पत्ति प्राप्त करके अपनी कवि सत्ता को शृंखलावत अग्रसर किया है।' ज्योति प्रसाद निर्मल द्वारा सम्पादित इस किताब की मार्फत हिन्दी भाषी इलाके की स्त्री-कवियों की संख्या और कविताएँ देखकर सुखद अचरज होता है, साथ ही अफसोस भी कि साहित्य के इतिहास में रचनाकार 'इत्यादि' क्यों बनी रहीं। हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में इन महत्त्वपूर्ण महिला रचनाकारों को 'इत्यादि' से निकालकर अपने नाम और गुण के साथ स्थापित करने की एक सार्थक कोशिश डॉ. सुमन राजे ने "हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास" में किया है।सुमन राजे ने हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास में अपनी अध्ययन-सामग्री को विवेचन, विश्लेषण बताते हुए लिखा है कि 'ज्यों-ज्यों आधे इतिहास का लेखन गति पकड़ता गया, यह धारणा पुख्ता होती गयी कि पुरुष इतिहासकारों ने महिला रचनाकारों के साथ बहुत अन्याय किया है। यह अन्याय उदासीनता के चलते हुआ हो, ऐसी बात नहीं। यह अन्याय विमुख रहकर किया गया है। लेकिन यह कहना भी गलत होगा कि अन्याय सिर्फ पुरुषों ने ही किया। महिला लेखकों ने भी उधर नजर नहीं डाली।'कहना न होगा कि आज के स्त्री-लेखन की सार्थकता और सफलता 'पुरुष' मानसिकता से जूझकर, स्त्री की आँख से साहित्य रचने, सैद्धान्तिकी बनाने और इतिहास लिखने में है। इसी के जरिये स्त्री-विमर्शकार भी साबित कर पाएँगी कि वे निर्वात में नहीं पैदा हो गयी हैं, बल्कि उनकी गहरी और विस्तृत देशी जड़ें भी हैं। स्त्री-लेखन की विरासत का महत्त्व सामने लाने पर कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की पंक्ति के सहारे कहा जा सकता है कि,
'रह गयी अधूरी पूजा जो जीवन में,
वह व्यर्थ नहीं, यह जान गया मैं मन में।'
(2011),
बहुत बढ़िया; स्त्री रचनाशीलता कोई अभी-अभी शुरू हुई नहीं है बल्कि इसकी एक बड़ी परम्परा रही है; इस पर बात करते हुए स्त्री विमर्श के समर्थन में सटीक तर्क रखते हुए तथ्यपरक विश्लेष्ण।
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक विश्लेषण।
जवाब देंहटाएंबहुत ज्ञानवर्धक लेख, स्त्री विमर्श को साहित्य में शामिल करना, लेखिकाओं को अनामिका की श्रेणी से निकाल कर उन्हें मुख्यधारा में लाना है।
जवाब देंहटाएंबहुत ज्ञानवर्धक लेख, स्त्री विमर्श को साहित्य में शामिल करना, लेखिकाओं को अनामिका की श्रेणी से निकाल कर उन्हें मुख्यधारा में लाना है।
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