अस्मितावाद की धर्मवीरी समझ
राजीव रंजन गिरि
हिन्दी कथा-साहित्य की कर्मभूमि बदलकर उसका कायाकल्प करने वाले अमर कथाकार प्रेमचन्द की रचनाओं पर विद्वानों के बीच वाद-संवाद होते रहे हैं। अपनी-अपनी वैचारिक समझ और नजरिये से विद्वानों ने उनकी रचनाओं को विवेचित-विश्लेषित किया है। इन लोगों की समझ और नजरिये का फर्क ही रचना पर भिन्न स्थापना कराता है। प्रेमचन्द जिस दौर में लिख रहे थे, उस समय के कुछ आलोचकों ने प्रेमचन्द की तीखी आलोचना की थी। इलाचन्द्र जोशी और हेमचन्द्र जोशी जैसे लेखकों का मानना था कि प्रेमचन्द की रचनाएँ भविष्य में याद नहीं की जाएँगी। नन्द दुलारे वाजपेयी ने इन्हें 'समसामयिक विषय का कथाकार' कहकर आलोचना की थी। असल में प्रेमचन्द की कई रचनाएँ स्वाधीनता-आन्दोलन में घटित सच्ची घटनाओं पर आधारित थीं। इसे ही परखकर जोशी बन्धुओं ने अपनी राय बनायी थी कि आनेवाले समय में प्रेमचन्द की कहानियाँ बासी हो जाएँगी। प्रेमचन्द की कहानियों की व्यापक लोकप्रियता ने ऐसी मान्यताओं का पुरजोर जवाब दे दिया है। यह था प्रेमचन्द की आलोचना का एक पक्ष। ज्योति प्रसाद निर्मल, ठाकुर श्रीनाथ सिंह जैसे लेखकों ने अपनी जातिवादी मानसिकता के साथ प्रेमचन्द की आलोचना की थी। इन लोगों का मानना था कि प्रेमचन्द अपनी रचनाओं में ब्राह्मणों, जमींदारों को काले रंग में चित्रित करते हैं। लिहाजा, 'घृणा के प्रचारक' हैं। प्रेमचन्द की आलोचना का यह दूसरा पक्ष था।
ठाकुर श्रीनाथ सिंह और ज्योति प्रसाद निर्मल की आलोचना के आधार पर देखा जाये तो जमींदारों और उच्च जातियों को काले रंग में चित्रित करने का क्या मतलब निकलेगा? ऐसे में प्रेमचन्द की पक्षधरता किस तबके के साथ साबित होगी? जाहिर तौर पर, तथाकथित निम्न जातियों और समाज के दबे-कुचले लोगों के प्रति।
अस्मितावादी विमर्श ने प्रेमचन्द की रचनाओं का अपने नजरिये से मूल्यांकन किया है। डॉ. धर्मवीर की, प्रेमचन्द पर प्रकाशित, तकरीबन साढ़े सात सौ पृष्ठों की किताब 'प्रेमचन्द की नीली आँखेंÓ (वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली) प्रेमचन्द को बिल्कुल भिन्न धरातल पर विवेचित-विश्लेषित करती है। प्रेमचन्द की प्रगतिशील छवि पर अपने वैचारिक मानस के हिसाब से सवाल उठाते हुए डॉ. धर्मवीर ने कुछ साल पहले एक किताब लिखी थी, 'प्रेमचन्द : सामन्त का मुंशी'। इस किताब में धर्मवीर ने 'कफन' कहानी को केन्द्र में रखकर अपनी राय जाहिर की थी। 'कफन' कहानी का विश्लेषण करते हुए धर्मवीर ने कहा था कि बुधिया के पेट में जमींदार का बच्चा था। चूँकि यह तथ्य या इसका संकेत कफन कहानी में नहीं मिलता; लिहाजा धर्मवीर के विश्लेषण और अभिमत की तीखी आलोचना हुई थी। 'प्रेमचन्द : सामन्त का मुंशी' में, इन्होंने लिखा था कि 'इस छोटी पुस्तक में इसी नजरिये से देखा गया है कि वे दलित और स्त्री के मामले में समय के दबाव के बदले हुए सामन्ती विचारों के व्यक्ति और प्रतिनिधि साहित्यकार थे।'
डॉ. धर्मवीर का यह बीज-विचार 'प्रेमचन्द की नीली आँखें में पल्लवित-पुष्पित हुआ है। अपनी इस किताब में, इन्होंने लिखा है कि 'प्रेमचन्द पर मुझे कुछ भी नहीं कहना था। प्रेमचन्द और प्रेमचन्द का साहित्य मेरे चिन्तन के विषय नहीं थे। वे पुस्तकों की मेरी स्कीम से बाहर थे। लेकिन भ्रम यह फैलाया गया कि प्रेमचन्द प्रो-दलित और प्रो-वूमेन थे। यह बर्दाश्त से बाहर की बात थी।' चूँकि धर्मवीर के लिए, अब तक चली आ रही, प्रेमचन्द पर स्त्री-दलित सम्बन्धी मान्यताएँ बर्दाश्त से बाहर थीं, लिहाजा यह लिखी गयी।
इस भारी-भरकम किताब में डॉ. धर्मवीर ने तीन दावा पेश किया है-''एक, प्रेमचन्द के उपन्यास 'रंगभूमि' का असली सामाजिक सन्दर्भ ढूँढ़ निकाला है। यह स्वामी अछूतानन्द के रूप में चमारों के आदि हिन्दू आन्दोलन का है। दो, प्रेमचन्द की रखैल ढूँढ़ ली है कि वह कानपुर की और कानपुर में होनी चाहिए। यह भी अन्दाजा लगाया है कि वह चमारी होनी चाहिए। तीन, कायस्थों के इतिहास की एक व्याख्या दी है कि कायस्थ शब्द 'क्राइस्ट' से बना हो सकता है।'
सवाल उठता है कि डॉ. धर्मवीर ने रचनाकार प्रेमचन्द को किस रूप में देखा है? प्रेमचन्द पर लिखी इनकी किताबों से साफ पता चलता है कि इन्हें महज कायस्थ जाति के एक व्यक्ति के रूप में देखा गया है। जाहिर तौर पर इन्होंने जो तर्क-पद्धति अपनायी है, उसके मुताबिक, ''यदि प्रेमचन्द को लेकर बात केवल कला-जगत की चलाई जाए तो वे कायस्थ जाति के पात्रों का, चाहे तो अच्छा खाका खींच सकते हैं। वर्ग के रूप में वे कायस्थ जाति के तीनों प्रकार के वर्गों का चित्रण करने में भी सफल हो सकते हैं।" आशय यह कि रचनाकार प्रेमचन्द का जन्म जिस जाति में हुआ था, उसी जाति के पात्रों का अच्छा खाका खींचने में सफल हो सकते हैं। अगर धर्मवीर की यह बात मान ली जाये तो साहित्य की बुनियादी मान्यता – साहित्य परकाया प्रवेश की साधना है– गलत साबित होगी। कोई भी रचनाकार सिर्फ अपनी जाति के पात्रों की मार्फत साहित्य नहीं रच सकता। अपने इस कुतर्क से वे जो स्थापित करना चाहते हैं, उस आधार पर तो दलित साहित्य भी नहीं रचा जा सकता। कारण कि दलित साहित्य का रचनाकार अपनी जाति के अलावा पात्र की रचना कैसे करेगा; गैर दलित पात्र की रचना का तो सवाल ही नहीं पैदा होगा !
डॉ. धर्मवीर की इसी तरह की विवेचन-पद्धति का नतीजा है कि वे डॉ. आम्बेडकर के चिन्तन को स्वतन्त्र दलित-चिन्तन मानने से इनकार करते हैं। आखिर क्यों? क्योंकि डॉ. आम्बेडकर ने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। अगर बाबा साहब डॉ. धर्मवीर द्वारा प्रस्तावित और पसन्दीदा 'धर्म' को स्वीकार करते, तो स्वतन्त्र दलित-चिन्तन का विकास होता ! कारण कि बौद्ध धर्म के संस्थापक का जन्म क्षत्रिय परिवार में हुआ था। ऐसे में एक दलित के तौर पर डॉ. आम्बेडकर का बौद्ध धर्म में शामिल होना, डॉ. धर्मवीर को मान्य नहीं है।
डॉ. धर्मवीर की इस किताब का महत्त्वपूर्ण पक्ष है– स्वामी अछूतानन्द और उनके द्वारा चलाए जा रहे आन्दोलन पर विस्तारपूर्वक विचार। प्रेमचन्द के उपन्यास 'रंगभूमि' को अछूतानन्द के साथ जोड़कर अब तक नहीं देखा गया था। धर्मवीर ने 'रंगभूमि' को अछूतानन्द और उनके आन्दोलन की परिणति मानकर देखने का इसरार करते हुए, नतीजा क्या निकाला है? इनका मानना है, 'प्रेमचन्द ने रंगभूमि का पाठ तैयार ही इसलिए किया था कि अपने समय के अछूतों के नेतृत्व से लड़ा जा सके।' इसलिए धर्मवीर प्रस्तावित करते हैं कि "यदि आप पाठ से बाहर नहीं देख रहे हैं तो समझ लो, आप मकड़ी के जाल में फँस गए हैं। तब इस जाल को कौन तोड़ेगा? पहले इन्द्रजाल का हथियार विरोधियों को फाँसने के लिए ही चलता था, साहित्य के क्षेत्र में इसे नाम बदलकर 'कला जाल' कह दो– है यह मकडज़ाल ही।"धर्मवीर ने आगे साफ-साफ लिखा है कि ''प्रेमचन्द ने 'रंगभूमि' रचकर चमार-पाठकों को कुएँ में ढकेला है। उन्होंने हम से हमारा इतिहास छीना है और हमसे हमारा नायक भी छीना है। तो क्या हम प्रेमचन्द जैसे कलावादियों के चक्कर में आकर अपना इतिहास और अपने नायक को भूल जाएँ? मैं पाठ के बाहर का भी पाठक हूँ, मेरे साथ ऐसा धोखा कैसे खेला जा सकेगा? मैंने 'रंगभूमि' को चारों ओर से घेरते खड़े अपने महान आजीवक स्वामी अछूतानन्द पहचान लिये हैं– मुझे प्रेमचन्द के किसी ऋषि सूरदास, औलिये सूरदास, फरिश्ते सूरदास, साधु सूरदास, दार्शनिक सूरदास, इल्म गैब वाले सूरदास और असाधारण पुरुष सूरदास को जानने और मानने की जरूरत नहीं है। सीधा आरोप लगाया जा सकता है कि 'रंगभूमि' रचकर प्रेमचन्द ने चमार पाठकों को बेवकूफ बनाने की रणनीति तैयार की थी।"
डॉ. धर्मवीर की तरह इतिहास से अपने मनचीते नायक को उपन्यास में खोजते हुए पढऩे वाले लोगों के लिए, 'कर्मभूमि' के 'निवेदन' में प्रेमचन्द ने लिखा था 'संसार में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उपन्यास को इतिहास की दृष्टि से पढ़ते हैं। उनसे हमारा निवेदन है कि जिस तरह पुस्तक के पात्र कल्पित हैं, उसी तरह इसके स्थान भी कल्पित हैं। कल्पित और यथार्थ व्यक्तियों में यह अन्तर अवश्य होगा, जो ईश्वर और ईश्वर के बनाए हुए मनुष्य की सृष्टि में होना चाहिए।" इतिहास के अपने पसन्दीदा चरित्र को 'रंगभूमि' में अपने मनचाहे रूप में न पाने के कारण ही, धर्मवीर को लगता है कि रंगभूमि रचकर प्रेमचन्द ने चमार पाठकों को बेवकूफ बनाने की रणनीति तैयार की थी।
बहरहाल, किसी भी अस्मितावादी समूह द्वारा उठाए जा रहे सवालों से मुँह नहीं फेरना चाहिए। कारण कि 'वृहद आख्यान' रचने के दौरान छोटी अस्मिताएँ दबी रह जाती हैं। साथ ही, कई दफे वृहद आख्यान के नाम पर ऊपर के लोगों का हित साधने की कवायद भी की जाती है। परंतु यह भी ध्यान रहे कि अस्मितावादी विचार या समूह का लक्ष्य मुक्ति-कामना हो। ऐसा न हो कि अपनी अस्मिता को उभारकर, ताकत अर्जित कर, एक नया वृहद आख्यान रच लिया जाये। उसके बाद अस्मिता से बने इस 'नए' आख्यान में भी दूसरी अस्मिताएँ दब जाएँ। लिहाजा लोकतान्त्रिक मूल्यों की कसौटी पर अस्मितावादी विचारों की जाँच होनी चाहिए। वरन अस्मितावादी विमर्श मुक्तिकामी परियोजना की बजाय एक दूसरी दमनकारी परियोजना का रूप धारण कर लेगी।
प्रेमचन्द के अस्मितावादी मूल्यांकन के दौरान भी इन बातों को याद रखना होगा। अपने समय में ऐसे ही सवालों से जूझते हुए प्रेमचन्द ने लिखा था, 'सूबा सूबे वालों के लिए, जिला जिले के लिए और फिर हिन्दू-हिन्दू के लिए, मुस्लिम-मुस्लिम के लिए, ब्राह्मण-ब्राह्मण के लिए, कायस्थ-कायस्थ के लिए, जैसी सदाएँ उठने लगी हैं। इतनी दीवारों और कोठरियों के अन्दर कौमियत कितने दिन साँस ले सकेगी?"
अस्मिता के रेखांकन के साथ-साथ कौमियत की परवाह जरूरी है और वास्तविक चुनौती भी। अस्मिता और कौमियत के बीच लोकतांत्रिक संतुलन के प्रतिमान पर जाँचकर विमर्शों का मूल्यांकन होना चाहिए। यह लोकतांत्रिक पहल एक आवश्यक पड़ाव साबित होगी।
बहुत सुंदर विश्लेषण सर🙏🙏🌹🌹
जवाब देंहटाएंअत्यंत सारगर्भित और प्रासंगिक लेख ।👍👍
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लेख सर
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा सर 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया राजीव जी ।अस्मितावादी विमर्श के लोकतंत्रिक अधिकार और
जवाब देंहटाएंपाठकद्वारा रचना के पाठ के बीच फंसे रचनाकार को समझने की दृष्टि से यह लेख महत्वपूर्ण है।
Bohut achha hai sit
जवाब देंहटाएंसारगर्भित लेख, हमारे भ्रम को तोड़ता हुआ।।
जवाब देंहटाएंअत्यंत गंभीर लेख अस्मिता विमर्श जैसे विषयों पर विभिन्न विद्वानों के विचारों का संक्षिप्त विवरण काफी रोचक है
जवाब देंहटाएंअच्छी तरह समझा दिया डॉक्टर धर्मवीर को.प्रेमचंद बेमिसाल हैं और प्रासंगिक भी.
जवाब देंहटाएंप्रो. मीरा गौतम
पंजाब विश्वविद्यालय
प्रेमचन्द्र में प्रति डॉ धर्मवीर दृष्टि का सटीक मूल्यांकन। दलित विमर्श के प्रारंभिक काल में यह बात आम रूप में उठी थी की दलित ही अपनी वास्तविक कहानी बयाँ कर सकता हैं। अन्य दूसरे समुदाय वाले दूसरे समुदाय के बारे में तथा उनके पत्रों के बारे में सही निर्णय नहीं कर सकते। इसका सबसे सटीक उत्तर इस लेख में मिला कि अगर ऐसा हैं तो "दलित साहित्य का रचनाकार अपनी जाति के अलावा पात्र की रचना कैसे करेगा; गैर दलित पात्र की रचना का तो सवाल ही नहीं पैदा होगा "। बहुत ही बढ़िया लेख। ऐसे ही अन्य रचनाकारों की दृष्टी का भी विश्लेष्ण कीजिए।
जवाब देंहटाएंबड़ा हो जरूरी और सुन्दर लेख है सर
जवाब देंहटाएंआलोचना करते करते इतना रम जाते हैं कि अच्छाईयाँ देखना भूल जाते हैं, प्रेमचंद जी के साहित्य में, मर्म जानने की आवश्यकता है बस, भ्रम खुद ब खुद दूर हो जाएगें।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लेख 😊
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