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नामवर के प्रतिमान : राजीव रंजन गिरि

 नामवर के प्रतिमान

राजीव रंजन गिरि

हिंदी में आलोचना को व्यवस्थित विधा का रूप और आकार देने का कार्य आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, विजयदेव नारायण शाही, नामवर सिंह सरीखे लोगों ने इसे विस्तार दिया है। हिंदी आलोचना की व्याप्ति और स्वीकृति की जमीन तैयार करनेवाले विद्वानों की फेहरिश्त काफी बड़ी है। इसमें नामवर सिंह अनन्य हैं। वजह साफ है। इन्होंने आलोचना विधा को केन्द्रीय स्थान दिलाने में बड़ी भूमिका निभाई है। अपने दौर में नामवर सिंह का साहित्य की केंद्रीय शख्सियत बनकर उभरना और बरकरार रहना इसका परिणाम है और प्रमाण भी। समीक्षा के अलावा नामवर सिंह ने जो भी रचा है, उसका महत्व गौण है। पिछले चार - पाँच दशक में नामवर सिंह ने समीक्षा- कर्म के जरिये अपने दौर के रचनाकारों को परिधि पर धकेल कर खुद को केंद्र में किया है। इतिहास में ऐसा अपवाद स्वरुप ही होता है। इन्होंने न सिर्फ हिंदी अपितु अपने देश- काल के भारतीय साहित्य के केंद्र में जगह निश्चित किया है। नामवर सिंह अपने आप में व्यक्ति से बढ़कर एक पक्ष के तौर पर शुमार किये जाते हैं, जिससे गोया सहमत हुआ जा सकता है या असहमत; पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। यह एक हुनर है और यही हुनर उन्हें नामवर बनाता है। एक ऐसे दौर में जब साहित्य को अपने दौर के ज्ञानात्मक अनुशासनों में कोई बड़ी हैसियत के तौर पर न आंका जा रहा हो। खेल, राजनीति जैसी विधाओं ने कला विधा पर तवज्जो हासिल की है। ऐसे में , हिंदी में साहित्य समीक्षा के द्वारा अपने देश- काल में स्वीकृति प्राप्त करना गौरतलब है।

              लिहाजा नामवर सिंह जिस आलोचना विधा में सक्रिय हैं, उसपर विचार करना जरूरी है।  हर बड़े आलोचक के पास कुछ सूत्र होते हैं। इन सूत्रों के जरिये आलोचक अपनी आलोचना का वितान खड़ा करता है। नामवर सिंह की आलोचना का केन्द्रीय सूत्र क्या है? व्यापकता और गहराई। इस शीर्षक से नामवरजी का एक चर्चित निबन्ध भी है। उन्नीस सौ छप्पन में लिखा गया यह निबन्ध, इनकी किताब 'इतिहास और आलोचना' में संकलित है। यह निबन्ध आलोचना में बतौर सम्पादकीय छपे धर्मवीर भारती के आलेख के बहाने लिखा गया था। धर्मवीर भारती ने प्रेमचन्द की कमी बताते हुए लिखा था कि इन्होंने समस्याओं का 'सरल समाधान' पेश किया है। नामवरजी ने इसी धारणा का प्रतिवाद करते हुए यह निबन्ध लिखा था। धर्मवीर भारती द्वारा प्रेमचन्द पर लगाये गये आरोप के बरअक्स जैनेन्द्र कुमार का मत, नामवरजी ने प्रस्तुत किया है। प्रेमचन्द के 'सरल समाधान' पर 'गहरे समझे जाने वाले' उपन्यासकार जैनेन्द्र कुमार की राय क्या है? 'गबन' उपन्यास की आलोचना करते हुए 'प्रेमचन्द की कला' शीर्षक निबन्ध में जैनेन्द्र कुमार ने लिखा है कि ''बात को ऐसा सुलझाकर कहने की आदत मैं नहीं जानता, मैंने और कहीं देखी है। बड़ी-से-बड़ी बात को बहुत उलझन के अवसर पर ऐसे सुलझाकर थोड़े-से शब्दों में भरकर, कुछ इस तरह कह जाते हैं, जैसे यह गूढ़, गहरी, अप्रत्यक्ष बात उनके लिए नित्य-प्रति घरेलू व्यवहार की जानी-पहचानी चीज हो। उनकी कलम सब जगह पहुँचती है; लेकिन अँधेरे-से-अँधेरे में भी वह कभी धोखा नहीं देती। वह वहाँ भी सरलता से अपना मार्ग बनाती चली जाती है। स्पष्टता के मैदान में प्रेमचन्द अविजय हैं। उनकी बात निर्णीत, खुली, निश्चित होती है|"
               जैनेन्द्र कुमार को उद्धृत कर नामवरजी ने दर्ज किया है कि आलोचना-सम्पादक जिस समाधान को 'सरल' कहते हैं वह जैनेन्द्र कुमार के अनुसार 'बड़ी-से-बड़ी बात को बहुत उलझन के अवसर पर सुलझाना" है। वह 'सरल' इसलिए मालूम होता हे कि स्पष्ट है, खुला है और निश्चित है। ऐसी सरलता तक पहुँचने में कितनी कठिनाइयों को पार करना पड़ता है, इसे जो नहीं जानते उनके लिए यह 'शार्टकट' है।
                    धर्मवीर भारती ने 'सोद्देश्यता' को कमतर माना था। साथ ही लिखा था कि ''जिन कारणों से साहित्यिक प्रतिच्छाया में विकृति उत्पन्न होती है, उनके पीछे साहित्य और सौन्दर्य के अपने नियम हैं जो सामाजिक आवश्यकता के बावजूद काम करते हैं। इन नियमों की क्रियाशीलता के कारण ही साहित्य ऊँची उड़ानेें भरता है और उसमें सार्वभौमिकता एवं श्रेष्ठता उत्पन्न होती है।" निरुद्देश्यता पर बल देने वाले और साहित्य के सौन्दर्य का कारण समाज को नहीं मानने वाले डॉ. भारती के मत की मुखालफत करते हुए डॉ. नामवर सिंह ने लिखा है कि ''साहित्य को श्रेष्ठ और सार्वभौम बनाने वाले वे 'अपने' नियम कौन-से हैं, इसे बताने की क्या जरूरत? यह तो सभी जानते हैं। बताने की बात तो वह है जो सबको न मालूम हो। इसीलिए लोगों का भ्रम दूर करने के लिए जोर देकर कहा गया कि साहित्य के सौन्दर्य का कारण समाज नहीं है। इस विषय में फिर कोई भ्रम न रह जाए, इसलिए आगे यह भी कह दिया है कि आलोचना के सामने असली सवाल सामाजिक यथार्थ का नहीं है, बल्कि उस यथार्थ की विकृतियों के अध्ययन का है।
                     इतना कहने के बाद भ्रम के लिए कहाँ गुंजाइश है। बेशक 'आलोचना' 'यथार्थ की विकृतियों' का ही अध्ययन प्रस्तुत कर रही है। और ऐसे अध्ययन के लिए सामाजिक यथार्थ से जितना ही दूर रहा जाए उतना ही अच्छा है! साहित्य सौन्दर्य के 'अपने' नियम समाज से दूर रहकर ही गढ़े जा सकते हैं और वे गढ़े हुए नियम कैसे होते हैं उसका प्रत्यक्ष उदाहरण उपर्युक्त उद्धरण है।
   आश्चर्य की बात नहीं है। यह 'वक्र रेखा' लेखक को इसी तरह समाज से दूर ले जाती है और इसके बाद तो वह 'सार्वभौम' हो जाता है; अपने देश-काल से जड़ कट जाने पर वह स्वभावत: सारी दुनिया का हो जाता है। ऊँचाई पर पहुँचकर वह व्यापक दृष्टिकोण से सभी देशों के लिए समान भाव से साहित्य रचने लगता है। इस 'सार्वभौमिकता' की झलक इन लेखकों के उपन्यासों के सार्वभौम चरित्रों और विविध भाषाओं के उद्धरणों में मिल सकती है। पतनोन्मुख पश्चिमी लेखकों के विचारों से अपनी सम्पादकीय टिप्पणियों को अलंकृत करके 'आलोचना' में इसी सार्वभौमिकता का ऊँचा आदर्श उपस्थित किया जाता है। इस सार्वभौमिकता का आदर्श यह है कि साहित्य में समाज की छाया को किस प्रकार अधिक-से-अधिक बिगाड़कर प्रस्तुत किया जाए। साहित्यिक छाया में जितना ही बिगाड़ होगा, रचना में उतनी ही गहराई होगी! इस प्रकार वक्र रेखा से चलकर सार्वभौमिकता तक और सार्वभौमिकता से चलकर 'गहराई' तक की यात्रा पूरी होती है।"
                      साहित्य के उस दौर में 'आलोचना' पर 'परिमल' का आधिपत्य था। 'प्रगतिशील' और 'परिमल' की वैचारिक रस्साकशी के दिनों में नामवर सिंह ने स्पष्ट किया है कि ''गहराई सार्वभौमिकता का ही दूसरा आयाम है जो 'आलोचना' के सम्पादकों का तकिया कलाम बन गया है। कभी ऊँचाई की ओर तो कभी गहराई की ओर! दोनों आयामों के इस व्यायाम में यदि कोई चीज नहीं आने पाती है तो वह है सतह! शायद उभ-चुभ करने वालों के लिए सतह वाले आयाम का अस्तित्व नहीं होता। विचारों की गहराई का नमूना है व्यक्ति स्वातन्त्र्य का घोषणा-पत्र, तो अनुभूतियों की गहराई के नमूने दर्जनों व्यक्तिवादी कविताएँ और उपन्यास। इस प्रकार हम देखते हैं कि सतह के खिलाफ गहराई की आवाज उठाने वाले दरअसल समाज के खिलाफ व्यक्ति-स्वातन्त्र्य की ही बात कहते हैं। यही उनकी गहराई है और सतह भी। और जिस तरह उनकी गहराई और सतह में कोई विरोध नहीं है, उसी तरह सभी लेखकों की गहराई और सतह में अविरोध है।" डॉ. भारती सरीखे लोगों की धारणाओं पर तंज करते हुए उन्होंने लिखा है कि ''जिन लोगों का 'दिल उनसे अलग जा पड़ा है और दिमाग के छिलके उतर गये हैं' उनके लिए एक-दूसरे से जुड़ी हुई चीजें भी अलग-अलग और विरोधी दिखाई पड़ती हैं। जहाँ उन्हें व्यापकता दिखाई पड़ती है, वहाँ गहराई नहीं मिलती; और गहराई मिलती है तो व्यापकता नहीं मिलती। प्रेमचन्द में व्यापकता है तो गहराई नहीं है; जैनेन्द्र में गहराई है तो व्यापकता नहीं है। इसी तरह तुलसीदास में व्यापकता है तो गहराई गायब है और सूरदास में गहराई है तो व्यापकता नदारद। व्यापकता और गहराई के विरोध में कुछ लोग तो 'अपने-आप' दोनों को महान कहकर जान छुड़ाते हैं। लेकिन जिन्होंने आलोचना के मूल्य-मान-मर्यादा का दायित्व लिया है वे व्यापकता के ऊपर गहराई को तरजीह देते हैं। इस कसौटी पर सूर श्रेष्ठ हो जाते हैं तुलसी से और शरत्चन्द श्रेष्ठ हो जाते हैं प्रेमचन्द से (क्योंकि जैनेन्द्र या अज्ञेय को खुलकर प्रेमचन्द से श्रेष्ठ कहने का साहस अभी लोगों में नहीं आया है।)  इसीलिए नामवरजी के मुताबिक ''देखना यह है कि किसी लेखक में व्यापकता के होते हुए भी जब हम गहराई की कमी पाते हैं तो वस्तुत: वह गहराई की कमी व्यापकता की ही कमी तो नहीं है? इसी तरह कोई लेखक संकीर्ण होते हुए भी गहरा मालूम हो तो विचारने की जरूरत है कि कहीं उनकी उस गहराई में ही तो कमी नहीं है?" आशय यह है कि नामवरजी ने 'व्यापकता' और 'गहराई' को अलहदा-अलहदा मानने-समझने वाली धारणा पर सवाल खड़ा करते हुए, दोनों को अन्योन्याश्रित मानने पर बल दिया। बकौल डॉ. नामवर सिंह ''अनुभूति की गहराई की परीक्षा करते हुए हम अनिवार्य रूप से इसकी व्याप्ति में जा पड़ेंगे। किसी को गहराई तक प्रभावित करने का अर्थ है उसके सम्पूर्ण अस्तित्व, व्यक्तित्व और भाव-सत्ता को प्रभावित करना और बहुत देर तक प्रभावित किए रहना।" लिहाजा ''अनुभूति की गहराई का निर्णय एक व्यक्ति और क्षण से नहीं किया जा सकता है। गहराई का निर्णय दिक और काल सापेक्ष है। इस तरह अनुभूति की गहराई पर विचार करते समय हमें साधारणीकरण के प्रश्न का सामना करना पड़ेगा। तब सवाल उठेगा कि उस विशेष चरित्र तथा अनुभूति में अधिक-से-अधिक लोगों और युगों तक पहुँचने की क्षमता है या नहीं? अनुभूति की गहराई को इस तरह तीव्रता के साथ सामान्यता का निर्वाह करना होगा। अनुभूति की शक्ति केवल तीव्रता में नहीं बल्कि स्थायित्व में होती है और स्थायित्व का आधार वस्तुत: व्यापक मानवीयता ही है। जब किसी अनुभूति को हम गहरी कहते हैं तो उसे मानवीय कहते हैं। और मानवीयता से व्यापकता खारिज नहीं है। मतलब यह है कि मानवीयता की व्यापक भूमि पर ही कोई अनुभूति गहरी हो सकती है।"
                 व्यापकता और गहराई की सम्बद्धता सम्बन्धी अपनी स्थापना को पुष्ट करने के लिए नामवर सिंह ने लियो तोल्सतोय के 'युद्ध और शान्ति' व 'अन्ना कैरेनिना' तथा गेटे के 'फाउस्ट' को विश्लेषित किया है। इसके जरिये यह बताया है कि किसी अनुभूति की गहराई व्यापक परिवेश पर निर्भर है। यही अनुभूति की 'गहराई' और परिवेश की 'व्यापकता' तथा इन दोनों के बीच का द्वन्द्वात्मक सम्बद्ध रिश्ता नामवरजी की आलोचना का केन्द्रीय सूत्र है। कहना न होगा कि नामवरजी की आलोचना को यही देन है। इस सूत्र को उनके आरम्भिक लेखन से लेकर हाल में प्रकाशित किताबों (कविता की जमीन और जमीन की कविता, प्रेमचन्द और भारतीय समाज, हिन्दी का गद्यपर्व) में भी देखा जा सकता है। यही सूत्र किसी रचना के मूल्यांकन के लिए नामवरी कसौटी भी है।

टिप्पणियाँ

  1. आपने नामवर जी पर अच्छी चर्चा की .खुलकर बात की है. कई जगह इन्हें देखा सुना और चर्चा भी की है. बहुत रोचक और नाटकीय ढंग से व्याख्यान देते थे.यह भी एक अनुभव होता था.उनकी विशिष्ट विचारधारा थी. उसी आधार को लेकर उनकी आलोचना-दृष्टि भी गतिशील होती थी.मेरे पास उनके सम्पादन में निकलने वाली 'आलोचना 'की वह प्रति थी जिसमें 'अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ ' की पहली बैठक की अध्यक्षता मुंशी प्रेमचंद ने की थी और कहा था की अब साहित्यकारों को अपने दायित्व का निर्वाह करके समाज के प्रति जवाबदेह होना चाहिए. उसमें उनके फटे जूतों की भी चर्चा थी. 'दिनमान ' में ठाकुर प्रसाद सिंह ने लिखा था कि फटे जूतों में दिखती अंगूठे और उँगलियाँ मणियों की तरह दमक रही थीं.नामवरजी ने यह वर्णन जुटाया था .कुर्सी और बेंच भी साबुत नहीं थे.बड़ी सादगी से यह महान घटना सम्पन्न हुई थी.यह प्रति विद्यार्थियों ने लौटाकर नहीं दी. आपने उनपर सार्थक वक्तव्य दिया. हार्दिक बधाई .👍🙏🏻

    प्रो. मीरा गौतम
    पंजाब विश्वविद्यालय

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