एक थे बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री
-- राजीव रंजन गिरि
मौजूदा दौर में हिन्दी-साहित्य का सामान्य विद्यार्थी अयोध्या प्रसाद खत्री को लगभग भूल चुका है। आखिर इसकी वजह क्या है? क्या अयोध्या प्रसाद खत्री का अवदान इतना कम है कि वह साहित्य के विद्यार्थियों के सामान्य-बोध का अंग न बन सकें। अथवा यह हिन्दी-साहित्य के इतिहासकारों और आलोचकों के दृष्टिकोण की खामी है या अध्ययन की किसी खास रणनीति का नतीजा?
भारतेन्दु युग से हिन्दी-साहित्य में आधुनिकता की शुरुआत हुई। उस दौर के रचनाकारों को आधुनिकता की शुरुआत करने का श्रेय दिया जाता है, जो वाजिब है। इसी दौर में बड़े पैमाने पर भाषा और विषय-वस्तु में बदलाव आये। खड़ीबोली हिन्दी गद्य की भाषा बनी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सहित सभी इतिहासकार-आलोचकों ने विषय-वस्तु के साथ-साथ भाषा के रूप में खड़ीबोली हिन्दी के चलन को आधुनिकता का नियामक माना है। गौरतलब है कि इतिहास के उस कालखंड में, जिसे हम भारतेन्दु युग के नाम से जानते हैं, खड़ीबोली हिन्दी गद्य की भाषा बन गयी लेकिन पद्य की भाषा के रूप में ब्रजभाषा का बोलबाला कायम रहा। इतना ही नहीं, कविताओं का विषय भक्ति और रीतिकालीन रहा। इस लिहाज से, कविता मध्यकालीन भाव-बोध तक सीमित रही।
अयोध्या प्रसाद खत्री ने गद्य और पद्य की भाषा के अलगाव को गलत मानते हुए इसकी एकरूपता पर जोर दिया। पहली बार इन्होंने साहित्य-जगत का ध्यान इस मुद्दे की तरफ खींचा। साथ ही इसे आन्दोलन का रूप दिया। इसी क्रम में खत्रीजी ने 'खड़ी-बोली का पद्यÓ दो खंडों में छपवाया। इन दोनों किताबों को तत्कालीन साहित्य-रसिकों के बीच नि:शुल्क बँटवाया। काबिलेगौर है कि इस किताब के छपने के बाद काव्य-भाषा का सवाल एक महत्त्वपूर्ण मुद्दे के रूप में उभरा। हिन्दी-साहित्य के इतिहास में 'खड़ीबोली का पद्य' ऐसी पहली और अकेली किताब है, जिसकी वजह से इतना अधिक वाद-विवाद हुआ। इस किताब ने काव्य-भाषा के सम्बन्ध में जो विचार प्रस्तावित किया, उस पर करीब तीन दशकों तक बहसें होती रहीं। इस किताब के जरिये एक साहित्यिक आन्दोलन की शुरुआत हुई। हिन्दी कविता की भाषा क्या हो, ब्रजभाषा अथवा खड़ीबोली हिन्दी? इसके सम्पादक ने खड़ीबोली हिन्दी का पक्ष लेते हुए ब्रजभाषा को खारिज किया। लिहाजा, इस आन्दोलन की वजह से परिस्थितियाँ ऐसी बदलीं कि ब्रजभाषा जैसी साहित्यिक भाषा बोली बन गयी और खड़ीबोली जैसी बोली साहित्यिक भाषा के तौर पर स्थापित हो गयी। 'खड़ीबोली का पद्य' के पहले भाग की भूमिका में खत्रीजी ने खड़ीबोली को पाँच भागों में बाँटा-ठेठ हिन्दी, पंडित जी की हिन्दी, मुंशी जी की हिन्दी, मौलवी साहब की हिन्दी और यूरेशियन हिन्दी। उन्होंने मुंशी-हिन्दी को आदर्श हिन्दी माना। ऐसी हिन्दी जिसमें कठिन संस्कृतनिष्ठ शब्द न हों। साथ ही अरबी-फारसी के कठिन शब्द भी नहीं हों। लेकिन आम हम शब्द चाहे किसी भाषा के हों, उससे परहेज न किया गया हो। प्रसंगवश, इसी मुंशी हिन्दी को महात्मा गांधी सहित कई लोगों ने हिन्दुतानी कहा है।
'खड़ीबोली का पद्य ' और अयोध्या प्रसाद खत्री के आन्दोलन से पहले खड़ीबोली में कविताएँ लिखी जाती थीं। ये कविताएँ कभी-कभार छपती भी थीं। 'खड़ीबोली का पद्य' में अयोध्या प्रसाद खत्री ने जिन कविताओं को शामिल किया, सारी पहले छप चुकी थीं। गौरतलब है कि 'खड़ीबोली-पद्य-आन्दोलन' का जिन लोगों ने प्रखर विरोध किया, इनमें से ज्यादातर लोग इस आन्दोलन से पहले खड़ीबोली में कविता लिख चुके थे अथवा खड़ीबोली में कविता लिखने के लिए कवियों को प्रेरित कर रहे थे।
काव्य-भाषा के तौर पर खड़ीबोली हिन्दी का सबसे मुखर विरोध राधाचरण गोस्वामी, प्रताप नारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट कर रहे थे। जबकि ये तीनों रचनाकार खड़ीबोली हिन्दी में कुछ कविताएँ लिख चुके थे। साथ ही अपने-अपने पत्र में खड़ीबोली में कविताएँ प्रकाशित कर चुके थे। 'दूसरे भारतेन्दु' के नाम से चर्चित प्रताप नारायण मिश्र की खड़ीबोली हिन्दी में लिखी कविता 'चाहो गाना समझो, चाहो रोना समझोो 15 जून, 1884 ई. को 'ब्राह्मण' में छपी है। इस कविता के साथ नागरी में कविता लिखने के लिए प्रताप नारायण मिश्र की एक अपील भी छपी है :
'आर्य कवियों से हम सानुरोध प्रार्थना करते हैं नागरी भाषा की कविता का भी ढंग डालें। जिस भाषा के लिए इतनी हाय करते हैं उसमें कविता की चाल न हो, प्रिय वर्ग हमें सहायता दो।'
प्रताप नारायण मिश्र की अपील में ही वे बुनियादी कारण मौजूद हैं, जिसकी वजह से वे बाद में खत्रीजी के 'खड़ीबोली का पद्य' आन्दोलन के विरोधी हो गये। मिश्रजी ने अपील में जिसे नागरी भाषा कहा है, वह खड़ीबोली हिन्दी ही है। लेकिन इस अपील में एक बात महत्त्वपूर्ण है। यह अपील सिर्फ 'आर्य कवियों' से की गयी है। दरअसल, हंटर कमीशन (1882) में सैकड़ों मेमोरेंडम देने के बावजूद हिन्दी के पक्ष में निर्णय न होने के कारण प्रताप नारायण मिश्र सरीखे हिन्दी-आन्दोलनकारी क्षुब्ध थे। इसी दौर में जोरदार तरीके से भाषा की धार्मिक पहचान गढ़ी जा रही थी। लिहाजा, पश्चिमोत्तर प्रान्त के हिन्दी-आन्दोलनकारियों के लिए खड़ीबोली हिन्दी हिन्दुओं की भाषा हो गयी। इसी का नतीजा है कि प्रताप नारायण मिश्र सिर्फ 'आर्य कवियोंं' से 'सानुरोध प्रार्थनाा' करते हैं। इस अपील में 'हंटर कमीशन' के दौर में हुई गहमागहमी की छाया स्पष्ट रूप से दिखती है। अपील में इन्होंने कहा है कि 'जिस भाषा के लिए इतनी हाय करते हैं।' हंटर कमीशन के दौरान फारसी लिपि (उर्दू) को हटाकर नागरी लिपि (हिन्दी) को लागू करने के लिए हिन्दी- आन्दोलनकारियों ने काफी 'हाय' मचायी थी।
प्रताप नारायण मिश्र के इस 'सानुरोध प्रार्थना ' से पहले चम्पारण के एक गाँव रतनमाल, (बगहाँ) के पंडित चन्द्रशेखरधर मिश्र की 1883 ई. में 'पीयूष प्रवाह' मासिक में एक कविता छपी। इस कविता में मिश्रजी ने खड़ीबोली हिन्दी में पद्य रचने के लिए वकालत की है :
गद्य की भाषा विशुद्ध विराजित पद्य की भाषा वही मथुरा की।
आधी रहे मुरगी की छटा फिर आधी बटेर की राजै छटा की।।
ऐसी कड़ी द्विविधा में पड़ी-पड़ी यों बिगड़ी कविता छवि बाँकी।
हिन्दी विशुद्ध में गद्य सुपद्य कै उन्नति कीजिए यों कविता की।।
गौरतलब है कि प्रताप नारायण मिश्र से चन्द्रशेखर मिश्र की अपील में फर्क है। प्रतापनारायण मिश्र ने खड़ीबोली हिन्दी में कविता रचने के लिए सिर्फ 'आर्य कवियों से सानुरोध प्रार्थथना' की है जबकि चन्द्रशेखरधर मिश्र ने ऐसा नहीं किया है। एक बात जरूर काबिलेगौर है कि चन्द्रशेखरधर मिश्र की इस छोटी कविता में उर्दू-फारसी का एक भी शब्द नहीं आ पाया है। क्या यह महज संयोग है? अथवा लल्लू जी लाल कवि की तरह जान-बूझकर हटाया गया है। बहरहाल, चन्द्रशेखरधर मिश्र 'हिन्दी विशुद्ध में गद्य सुपद्य के उन्नति कीजिए यों कविता की' में किस हिन्दी में पद्य-रचना कराना चाहते थे, इसका सहज पता चलता है। चन्द्रशेखरधर मिश्र की इसी सोच का नतीजा है कि 'हिन्दी उर्दू की लड़ाई' नामक नाटक लिखनेवाले सोहन प्रसाद मुदर्रिस के मामले में, उन्होंने हिन्दी-भाषा का हिन्दू धर्म से रिश्ता जोड़कर, भाषायी साम्प्रदायिकता फैलानेवालों के साथ बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इस प्रकार, शुरुआत में प्रतापनारायण मिश्र और चन्द्रशेखरधर मिश्र की काव्य-भाषा सम्बन्धी चिन्ता समान है। दोनों की भाषा एक जैसी है। फर्क है तो सिर्फ पाठ में, जिसको लक्ष्य कर दोनों अपील कर रहे थे।
'खड़ीबोली का पद्य' का पहला मुखर विरोध राधाचरण गोस्वामी ने किया। इन्होंने 'हिन्दोस्थान' में इसकी समीक्षा लिखते हुए इस किताब को 'अयोध्या प्रसाद खत्री लिखित' कहा। जबकि इस किताब में खत्रीजी की लिखी सिर्फ छोटी भूमिका है। इसी समीक्षा में कहा कि इस भाषा में कवित्त, सवैया आदि छन्दों का निर्वाह नहीं हो सकता और यदि किया भी जाता है तो बहुत भद्दा मालूम पड़ता है। राधाचरण गोस्वामी को एक आपत्ति यह भी थी कि खड़ीबोली हिन्दी में कविता लिखने पर भाषा यानी जनभाषा के प्रसिद्ध छन्द छोड़कर उर्दू के बैत, शेर, गजल आदि का अनुकरण करना पड़ता है। इनका मानना था कि चन्द से हरिश्चन्द्र तक सारी कविता ब्रजभाषा में हुई है और सब पंडितों ने संस्कृत के अनन्तर 'भाषा' शब्द से इसी का व्यवहार किया। हमारी कविता की भाषा अभी मरी नहीं है तब फिर इसमें क्यों न कविता की जाए? गोस्वामीजी का मानना था कि संस्कृत नाटकों में साहित्य के लालित्य के लिए संस्कृत, प्राकृत, पैशाची कई भाषा व्यवहार की गयी है तो यदि हम हिन्दी साहित्य में दो भाषा व्यवहार करें तो क्या चोरी है? इस समय में हमारे परम आतुर आर्य समाजी और मिशनरी आदिकों ने भाषा-साहित्य की रीति और अलंकार आदि बिना जाने कविता लिखने का आरम्भ करके अपने हास्य के सिवाय काव्य की भी उलटे हुए छुरे से खूब हजामत की है और इस पिशाची कविता से अपने समाज का भी खूब मुख नीचा किया है। बस यह खड़ीबोली की कविता भी पिशाची नहीं तो डाकिनी अवश्य कवित-समाज में मानी जाएगी।
अव्वल तो यह कि गोस्वामीजी की चिन्ता उर्दू के बैत, शेर और गजल से बचने की है। सवाल उठता है कि गोस्वामीजी सरीखे विद्वान उर्दू की शैली से बचने की इतनी कोशिश क्यों करते हैं? इसका जवाब गोस्वामीजी के ही एक कथन में मिलता है–'मैं जिस कुल में उत्पन्न हुआ उसमें अँग्रेजी पढऩा तो दूर है, यदि कोई फारसी, अँग्रेजी का शब्द भूल से भी मुख से निकल जाए तो बहुत पश्चाताप करना पड़े।' बावजूद इसके गोस्वामीजी ने अँग्रेजी पढ़ी। फिर उर्दू-फारसी से इतना वैर क्यों? इसकी वजह भाषा के आधार पर हो रही तत्कालीन साम्प्रदायिक राजनीति थी। यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि गोस्वामीजी ने संस्कृत नाटकों में प्राकृत, पैशाची आदि कई भाषाओं के प्रयोग को 'साहित्य का लालित्य माना है। गौरतलब है कि यह कथन संस्कृत नाटकों के युग की नाट्यभाषा में छिपी वर्चस्ववादी विचारधारा को नहीं समझने का नतीजा है। संस्कृत नाटकों में द्विज पुरुष पात्र संस्कृत में संवाद बोलता है जबकि स्त्री, दास और शूद्र पात्र प्राकृत, पैशाची आदि लोक-भाषाओं में। इसे सिर्फ साहित्यिक लालित्य समझना तत्कालीन भाषायी विभेदकारी शोषणमूलक संरचना को नहीं समझने का परिणाम है अथवा-साहित्यिक लालित्य के नाम पर उस विचारधारा को छिपाने की कोशिश।
काव्य-भाषा के तौर पर खड़ीबोली हिन्दी का सबसे मुखर विरोध राधाचरण गोस्वामी, प्रताप नारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट कर रहे थे। जबकि ये तीनों रचनाकार खड़ीबोली हिन्दी में कुछ कविताएँ लिख चुके थे। साथ ही अपने-अपने पत्र में खड़ीबोली में कविताएँ प्रकाशित कर चुके थे। 'दूसरे भारतेन्दु' के नाम से चर्चित प्रताप नारायण मिश्र की खड़ीबोली हिन्दी में लिखी कविता 'चाहो गाना समझो, चाहो रोना समझोो 15 जून, 1884 ई. को 'ब्राह्मण' में छपी है। इस कविता के साथ नागरी में कविता लिखने के लिए प्रताप नारायण मिश्र की एक अपील भी छपी है :
'आर्य कवियों से हम सानुरोध प्रार्थना करते हैं नागरी भाषा की कविता का भी ढंग डालें। जिस भाषा के लिए इतनी हाय करते हैं उसमें कविता की चाल न हो, प्रिय वर्ग हमें सहायता दो।'
प्रताप नारायण मिश्र की अपील में ही वे बुनियादी कारण मौजूद हैं, जिसकी वजह से वे बाद में खत्रीजी के 'खड़ीबोली का पद्य' आन्दोलन के विरोधी हो गये। मिश्रजी ने अपील में जिसे नागरी भाषा कहा है, वह खड़ीबोली हिन्दी ही है। लेकिन इस अपील में एक बात महत्त्वपूर्ण है। यह अपील सिर्फ 'आर्य कवियों' से की गयी है। दरअसल, हंटर कमीशन (1882) में सैकड़ों मेमोरेंडम देने के बावजूद हिन्दी के पक्ष में निर्णय न होने के कारण प्रताप नारायण मिश्र सरीखे हिन्दी-आन्दोलनकारी क्षुब्ध थे। इसी दौर में जोरदार तरीके से भाषा की धार्मिक पहचान गढ़ी जा रही थी। लिहाजा, पश्चिमोत्तर प्रान्त के हिन्दी-आन्दोलनकारियों के लिए खड़ीबोली हिन्दी हिन्दुओं की भाषा हो गयी। इसी का नतीजा है कि प्रताप नारायण मिश्र सिर्फ 'आर्य कवियोंं' से 'सानुरोध प्रार्थनाा' करते हैं। इस अपील में 'हंटर कमीशन' के दौर में हुई गहमागहमी की छाया स्पष्ट रूप से दिखती है। अपील में इन्होंने कहा है कि 'जिस भाषा के लिए इतनी हाय करते हैं।' हंटर कमीशन के दौरान फारसी लिपि (उर्दू) को हटाकर नागरी लिपि (हिन्दी) को लागू करने के लिए हिन्दी- आन्दोलनकारियों ने काफी 'हाय' मचायी थी।
प्रताप नारायण मिश्र के इस 'सानुरोध प्रार्थना ' से पहले चम्पारण के एक गाँव रतनमाल, (बगहाँ) के पंडित चन्द्रशेखरधर मिश्र की 1883 ई. में 'पीयूष प्रवाह' मासिक में एक कविता छपी। इस कविता में मिश्रजी ने खड़ीबोली हिन्दी में पद्य रचने के लिए वकालत की है :
गद्य की भाषा विशुद्ध विराजित पद्य की भाषा वही मथुरा की।
आधी रहे मुरगी की छटा फिर आधी बटेर की राजै छटा की।।
ऐसी कड़ी द्विविधा में पड़ी-पड़ी यों बिगड़ी कविता छवि बाँकी।
हिन्दी विशुद्ध में गद्य सुपद्य कै उन्नति कीजिए यों कविता की।।
गौरतलब है कि प्रताप नारायण मिश्र से चन्द्रशेखर मिश्र की अपील में फर्क है। प्रतापनारायण मिश्र ने खड़ीबोली हिन्दी में कविता रचने के लिए सिर्फ 'आर्य कवियों से सानुरोध प्रार्थथना' की है जबकि चन्द्रशेखरधर मिश्र ने ऐसा नहीं किया है। एक बात जरूर काबिलेगौर है कि चन्द्रशेखरधर मिश्र की इस छोटी कविता में उर्दू-फारसी का एक भी शब्द नहीं आ पाया है। क्या यह महज संयोग है? अथवा लल्लू जी लाल कवि की तरह जान-बूझकर हटाया गया है। बहरहाल, चन्द्रशेखरधर मिश्र 'हिन्दी विशुद्ध में गद्य सुपद्य के उन्नति कीजिए यों कविता की' में किस हिन्दी में पद्य-रचना कराना चाहते थे, इसका सहज पता चलता है। चन्द्रशेखरधर मिश्र की इसी सोच का नतीजा है कि 'हिन्दी उर्दू की लड़ाई' नामक नाटक लिखनेवाले सोहन प्रसाद मुदर्रिस के मामले में, उन्होंने हिन्दी-भाषा का हिन्दू धर्म से रिश्ता जोड़कर, भाषायी साम्प्रदायिकता फैलानेवालों के साथ बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इस प्रकार, शुरुआत में प्रतापनारायण मिश्र और चन्द्रशेखरधर मिश्र की काव्य-भाषा सम्बन्धी चिन्ता समान है। दोनों की भाषा एक जैसी है। फर्क है तो सिर्फ पाठ में, जिसको लक्ष्य कर दोनों अपील कर रहे थे।
'खड़ीबोली का पद्य' का पहला मुखर विरोध राधाचरण गोस्वामी ने किया। इन्होंने 'हिन्दोस्थान' में इसकी समीक्षा लिखते हुए इस किताब को 'अयोध्या प्रसाद खत्री लिखित' कहा। जबकि इस किताब में खत्रीजी की लिखी सिर्फ छोटी भूमिका है। इसी समीक्षा में कहा कि इस भाषा में कवित्त, सवैया आदि छन्दों का निर्वाह नहीं हो सकता और यदि किया भी जाता है तो बहुत भद्दा मालूम पड़ता है। राधाचरण गोस्वामी को एक आपत्ति यह भी थी कि खड़ीबोली हिन्दी में कविता लिखने पर भाषा यानी जनभाषा के प्रसिद्ध छन्द छोड़कर उर्दू के बैत, शेर, गजल आदि का अनुकरण करना पड़ता है। इनका मानना था कि चन्द से हरिश्चन्द्र तक सारी कविता ब्रजभाषा में हुई है और सब पंडितों ने संस्कृत के अनन्तर 'भाषा' शब्द से इसी का व्यवहार किया। हमारी कविता की भाषा अभी मरी नहीं है तब फिर इसमें क्यों न कविता की जाए? गोस्वामीजी का मानना था कि संस्कृत नाटकों में साहित्य के लालित्य के लिए संस्कृत, प्राकृत, पैशाची कई भाषा व्यवहार की गयी है तो यदि हम हिन्दी साहित्य में दो भाषा व्यवहार करें तो क्या चोरी है? इस समय में हमारे परम आतुर आर्य समाजी और मिशनरी आदिकों ने भाषा-साहित्य की रीति और अलंकार आदि बिना जाने कविता लिखने का आरम्भ करके अपने हास्य के सिवाय काव्य की भी उलटे हुए छुरे से खूब हजामत की है और इस पिशाची कविता से अपने समाज का भी खूब मुख नीचा किया है। बस यह खड़ीबोली की कविता भी पिशाची नहीं तो डाकिनी अवश्य कवित-समाज में मानी जाएगी।
अव्वल तो यह कि गोस्वामीजी की चिन्ता उर्दू के बैत, शेर और गजल से बचने की है। सवाल उठता है कि गोस्वामीजी सरीखे विद्वान उर्दू की शैली से बचने की इतनी कोशिश क्यों करते हैं? इसका जवाब गोस्वामीजी के ही एक कथन में मिलता है–'मैं जिस कुल में उत्पन्न हुआ उसमें अँग्रेजी पढऩा तो दूर है, यदि कोई फारसी, अँग्रेजी का शब्द भूल से भी मुख से निकल जाए तो बहुत पश्चाताप करना पड़े।' बावजूद इसके गोस्वामीजी ने अँग्रेजी पढ़ी। फिर उर्दू-फारसी से इतना वैर क्यों? इसकी वजह भाषा के आधार पर हो रही तत्कालीन साम्प्रदायिक राजनीति थी। यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि गोस्वामीजी ने संस्कृत नाटकों में प्राकृत, पैशाची आदि कई भाषाओं के प्रयोग को 'साहित्य का लालित्य माना है। गौरतलब है कि यह कथन संस्कृत नाटकों के युग की नाट्यभाषा में छिपी वर्चस्ववादी विचारधारा को नहीं समझने का नतीजा है। संस्कृत नाटकों में द्विज पुरुष पात्र संस्कृत में संवाद बोलता है जबकि स्त्री, दास और शूद्र पात्र प्राकृत, पैशाची आदि लोक-भाषाओं में। इसे सिर्फ साहित्यिक लालित्य समझना तत्कालीन भाषायी विभेदकारी शोषणमूलक संरचना को नहीं समझने का परिणाम है अथवा-साहित्यिक लालित्य के नाम पर उस विचारधारा को छिपाने की कोशिश।
राधाचरण गोस्वामी के सवालों का जवाब उसी अखबार में श्रीधर पाठक ने दिया। इसके बाद इस मुद्दे पर पक्ष-विपक्ष में लेख छपने लगे। गोस्वामीजी ने फिर से अपनी पुरानी मान्यताओं पर अडिग रहते हुए–जिसमें इन्होंने हिन्दी को पिशाचिनी, डाकिनी कहा था–दूसरा सवाल पूछा कि खड़ीबोली के पक्षधर किस कविता को लेकर हिन्दी काव्य-रचना करेंगे? उन्होंने शंका जतायी कि खड़ीबोली की कविता की चेष्टा की जाए तो फिर खड़ीबोली के स्थान में थोड़े दिनों में खाली उर्दू कविता का प्रचार हो जाएगा। उनको लगता था कि 'गद्य में सरकारी पुस्तकों में फारसी शब्द घुस ही पड़े, उधर पद्य में फारसी भरी गयी तो सहज ही झगड़ा विदा।' राधाचरण गोस्वामी के इस सवाल– खड़ीबोली के पक्षधर किस कविता को लेकर हिन्दी काव्य-रचना करेंगे, का जवाब देते हुए श्रीधर पाठक ने लिखा 'हमलोग ब्रजभाषा और खड़ीबोली भाषा दोनों की कविता से अपनी आराध्य हिन्दी को द्विगुणित, चतुरगुणित आभूषण पहनाकर और विधि रीति से उसके 'अटल' भंडार को बढ़ाकर उसके असीम वैभव के सदा अभिमानी होंगे और दोनों का आधार साधार रखेंगे।' राधाचरण गोस्वामी की शंका थी कि खड़ीबोली में काव्य-रचना करने पर थोड़े दिनों में सिर्फ उर्दू कविता का प्रचार हो जाएगा, को वक्त ने निराधार साबित कर दिया है। इनकी एक चिन्ता कि कविता में फारसी घुस जाएगी का जवाब देते हुए पाठकजी ने लिखा–'खड़ी हिन्दी की कविता में उर्दू नहीं घुसने पावेगी। जब हम हिन्दी की प्रतिष्ठा के परीक्षण में सदा सचेत रहेंगे तो उर्दू की ताव क्या जो चौखट के भीतर पाँव रख सके।' 'कविता में फारसी घुस जाएगी'–दरअसल, खड़ीबोली काव्य-भाषा के विरोध का सबसे बड़ा कारण था। काबिलेगौर है कि इस मुद्दे पर 'खड़ीबोली का पद्य' के विरोधी राधाचरण गोस्वामी और समर्थक श्रीधर पाठक की भाषा-नीति समान है। फर्क इतना है कि गोस्वामीजी को डर है कि खड़ीबोली में कविता रचने पर कविता में फारसी घुस जाएगी। जबकि श्रीधर पाठक को इसका डर नहीं है। वे उर्दू-फारसी से अपनी हिन्दी कविता को चाक-चौबन्द रखने का विश्वास प्रकट करते हैं कि वे सरकार की नीति का अनुयायी बने बगैर हिन्दी कविता की रक्षा करेंगे।
स्कूली-हिन्दी में फारसी शब्दों के प्रयोग से गोस्वामीजी का डर बढ़ गया था। प्रसंगवश उस दौर में स्कूलों में पढ़ायी जाने वाली पुस्तकों को राजा शिवप्रसाद 'सितारै हिन्द' ने तैयार किया था। किताबों में आमफहम उर्दू-फारसी शब्दों से परहेज नहीं किया गया था। राजा शिव प्रसाद की इस नीति में हिन्दी-उर्दू करीब थी। यह बिल्कुल स्वाभाविक था। हिन्दी-उर्दू को करीब लाना ऐतिहासिक जरूरत भी थी। समूचे हिन्दी-उर्दू इलाके को एक सूत्र में बाँधने के लिए यह जरूरी कदम था। यह ऐतिहासिक विडम्बना है कि ब्रजभाषा कविता के पक्षधर राधाचरण गोस्वामी और खड़ीबोली कविता के पक्षधर श्रीधर पाठक इस सवाल पर एक साथ खड़े थे। आखिर इसके पीछे क्या वजह थी? लल्लूजी लाल कवि 'प्रेमसागर' में प्रचलित एवं आमफहम 'यावनी' शब्दों का प्रयोग क्यों नहीं कर रहे थे? जिस प्रकार 'यवन' के कदम रखने मात्र से कृष्ण मन्दिर या भक्त का घर अपवित्र हो जाता था, उसी प्रकार कृष्णभक्ति से जुड़ी रचनाएँ भी 'यावनी' शब्दों के प्रयोग से अपवित्र जो हो जातीं! यही वजह थी कि 'यावनी' शब्दों से हिन्दी को बचाने की जद्दोजहद चल रही थी। यावनी शब्द से हिन्दी को बचाने की कोशिश में कृत्रिम और अस्वाभाविक हिन्दी गढऩा इन लोगों को गवारा था। अपनी इसी मानसिकता के कारण तत्कालीन लेखकों का एक तबका खड़ीबोली हिन्दी गद्य से उर्दू-फारसी शब्दों को छाँटकर संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग करता था। गोया कि इसके जरिये 'पवित्र' भाषा गढ़ी जा रही थी। खड़ीबोली के एक साहित्यिक रूप उर्दू में ज्यादातर मुस्लिम रचानाकार रचनाएँ कर रहे थे। इसमें फारसी शब्दों का खुलकर प्रयोग भी हो रहा था। यही वजह थी कि श्रीधर पाठक, राधाचरण गोस्वामी जैसे रचनाकार इस भाषा से दूरी कायम कर रहे थे।
स्कूली-हिन्दी में फारसी शब्दों के प्रयोग से गोस्वामीजी का डर बढ़ गया था। प्रसंगवश उस दौर में स्कूलों में पढ़ायी जाने वाली पुस्तकों को राजा शिवप्रसाद 'सितारै हिन्द' ने तैयार किया था। किताबों में आमफहम उर्दू-फारसी शब्दों से परहेज नहीं किया गया था। राजा शिव प्रसाद की इस नीति में हिन्दी-उर्दू करीब थी। यह बिल्कुल स्वाभाविक था। हिन्दी-उर्दू को करीब लाना ऐतिहासिक जरूरत भी थी। समूचे हिन्दी-उर्दू इलाके को एक सूत्र में बाँधने के लिए यह जरूरी कदम था। यह ऐतिहासिक विडम्बना है कि ब्रजभाषा कविता के पक्षधर राधाचरण गोस्वामी और खड़ीबोली कविता के पक्षधर श्रीधर पाठक इस सवाल पर एक साथ खड़े थे। आखिर इसके पीछे क्या वजह थी? लल्लूजी लाल कवि 'प्रेमसागर' में प्रचलित एवं आमफहम 'यावनी' शब्दों का प्रयोग क्यों नहीं कर रहे थे? जिस प्रकार 'यवन' के कदम रखने मात्र से कृष्ण मन्दिर या भक्त का घर अपवित्र हो जाता था, उसी प्रकार कृष्णभक्ति से जुड़ी रचनाएँ भी 'यावनी' शब्दों के प्रयोग से अपवित्र जो हो जातीं! यही वजह थी कि 'यावनी' शब्दों से हिन्दी को बचाने की जद्दोजहद चल रही थी। यावनी शब्द से हिन्दी को बचाने की कोशिश में कृत्रिम और अस्वाभाविक हिन्दी गढऩा इन लोगों को गवारा था। अपनी इसी मानसिकता के कारण तत्कालीन लेखकों का एक तबका खड़ीबोली हिन्दी गद्य से उर्दू-फारसी शब्दों को छाँटकर संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग करता था। गोया कि इसके जरिये 'पवित्र' भाषा गढ़ी जा रही थी। खड़ीबोली के एक साहित्यिक रूप उर्दू में ज्यादातर मुस्लिम रचानाकार रचनाएँ कर रहे थे। इसमें फारसी शब्दों का खुलकर प्रयोग भी हो रहा था। यही वजह थी कि श्रीधर पाठक, राधाचरण गोस्वामी जैसे रचनाकार इस भाषा से दूरी कायम कर रहे थे।
प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट जैसे लेखकों को भी इसी का भय सता रहा था। भट्टजी की चिन्ता थी कि ''हम अपनी पद्यमयी सरस्वती को किसी दूसरे ढंग पर उतारकर मैली और कलुषित नहीं करना चाहते। पद्य या कविता उसी का नाम है जिस मार्ग भूषण, मतिराम, पद्माकर तथा सूर, तुलसी, बिहारी प्रभृति महोदय गण चल चुके हैं।" यहाँ भट्ट जी यह भूल जाते हैं कि इनकी 'पद्यमयी सरस्वती' कई नये ढंग पर उतरने के बाद ही भूषण, मतिराम आदि कवियों तक पहुँची है। यहाँ एक सवाल यह भी पूछा जा सकता है कि जब कभी-कभार बालकृष्ण भट्ट स्वयं खड़ीबोली में रचना करते थे तब क्या 'पद्यमयी सरस्वती कलुषित' नहीं होती थी! राधाचरण गोस्वामी की सुधार-चेतना ऐसी थी कि वह कुछ कदम आगे बढ़ाकर फिर कई कदम पीछे मुड़ गये थे। बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र और राधाचरण गोस्वामी भी खड़ीबोली में कविता रचने के मुद्दे पर दो कदम आगे बढ़ाकर अपने धार्मिक हठ की वजह से फिर पीछे चले गये थे।
इसके अलावा इन तीनों रचनाकरों के अलावा डॉ. ग्रियर्सन भी खड़ीबोली की कविता को असम्भव करार दे रहे थे। इन चारों लेखकों ने अपनी इस धारणा का आधार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कथन को बनाया था। इनका मानना था कि जब भारतेन्दु ही खड़ीबोली में कविता नहीं रच सके तो फिर दूसरे रचनाकारों की क्या औकात? भारतेन्दु हरिश्चन्द्र 'रसा' उपनाम से गज़ल लिखते थे। इसके साथ ही उनके खड़ीबोली में कविता लिखने का जिक्र दो बार मिलता है। 1881 ई. में कलकत्ता से छोटूलाल मिश्र के सम्पादन में प्रकाशित 'भारत मित्र' के लिए खड़ीबोली हिन्दी में लिखे दोहे के साथ एक खत भेजा था–'प्रचलित साधुभाषा में कुछ कविता भेजी है। देखिएगा कि इसमें क्या कसर है और किस उपाय का अवलम्ब करने पर इस भाषा में काव्य सुन्दर बन सकता है। इस कविता में सर्वसाधारण की अनुमति ज्ञात होने पर आगे से वैसा परिश्रम किया जाएगा। तीन भिन्न छन्दों में यह अनुभव ही करने के लिए कि किस छन्द में इस भाषा का काव्य अच्छा होगा, कविता लिखी है। मेरा चित्त इससे सन्तुष्ट न हुआ और न जाने क्यों ब्रजभाषा से इसके लिखने में दूना परिश्रम किया कि खड़ीबोली में कविता बनाऊँ पर वह मेरे चित्तानुसार नहीं बनी। इससे निश्चय होता है कि ब्रजभाषा ही में कविता करना उत्तम होता है और इसी से सब कविता ब्रजभाषा में ही उत्तम होती है।" अव्वल तो यह कि भारतेन्दु के चित्तानुसार कविता नहीं बनी तो उन्होंने नतीजा निकाल लिया कि ब्रजभाषा में कविता करना उत्तम होता है। खुद से जो काम नहीं हो सका, उसके बारे में नतीजा निकालना अपने-आप पर टिप्पणी है।
गौरतलब है कि इन्हीं पंक्तियों के आधार पर भारतेन्दु के प्रति अन्धभक्ति रखने वाले तत्कालीन लेखक खड़ीबोली में पद्य-रचना को असम्भव करार दे रहे थे। अन्धसमर्थकों द्वारा किसी भी विचारक, गुरु या नेता की बातों का ऐसा ही हश्र होता है। अव्वल तो यह कि अन्धभक्त अपने 'आराध्य' की बात को आलोचनात्मक दृष्टि से नहीं देखते। बदलती ऐतिहासिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में उन विचारों का विकास भी नहीं कर पाते हैं। भारतेन्दु की बातों का भारतेन्दु-मंडल के सदस्यों के लिए कितना महत्त्व था, राधाचरण गोस्वामी के इस बयान से इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। ''उनके (भारतेन्दु) के लेख ग्रन्थ हमको वेद वाक्यवत, प्रमाण और मान्य थे। उनको मानो ईश्वर का एकादश अवतार मानते थे। हमारे सब कामों में वह आदर्श थे, उनकी एक-एक बात हमारे लिए उदाहरण थी।" इस बयान से भारतेन्दु का व्यक्तित्व और गोस्वामीजी सरीखे लेखकों की अन्धभक्ति का पता चलता है। वेद के वाक्यों पर आर्यसमाजी हिन्दुओं द्वारा सवाल उठाना, जिस प्रकार पाप माना जाता था उसी प्रकार इन लोगों द्वारा भारतेन्दु की बात का प्रतिवाद करना तो दूर उस पर शंका करना भी मानो पाप जैसा था। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि इतिहास के जिस दौर में बुद्धिवाद, आलोचनात्मक वृत्ति का विकास हो रहा था, उस दौर में हिन्दी के बड़े लेखकों में ऐसा भाव कायम था। भारतेन्दु के प्रति इनकी अन्धभक्ति का आलम यह था कि वे उनकी बात को भी ठीक से नहीं समझ पा रहे थे। ऐसे ही अन्धसमर्थकों से आजीज आकर अयोध्या प्रसाद खत्री ने 'एक अगरवाले के मत पर खत्री की समालोचनाा' शीर्षक पैम्फलेट छपवाकर बँटवाया। खत्रीजी ने लिखा कि 'बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ईश्वर नहीं थे। उनको शब्दों का (फिलोलॉजी) कुछ भी बोध नहीं था। यदि फिलोलॉजी का ज्ञान होता तो खड़ीबोली पद्य में रचना नहीं हो सकती है, ऐसा नहीं कहते' इतिहास के इस दौर में जब भारतेन्दु-मंडल के लेखकों की तूती बोलती थी, उस समय भारतेन्दु के बारे में ऐसी टिप्पणी काबिल-ए-बर्दाश्त नहीं थी। हालाँकि खत्रीजी की बात तार्किक थी।
उन्नीसवीं सदी के उत्तराद्र्ध के दौर में बिहार में उर्दू भाषा के विरोध में हिन्दी-आन्दोलन नहीं चल रहा था। बिहार का हिन्दी-आन्दोलन उर्दू और हिन्दी को साथ लेकर चल रहा था। जबकि तत्कालीन पश्चिमोत्तर प्रान्त का हिन्दी-आन्दोलन उर्दू और मुसलमानों का प्रखर विरोध कर रहा था। अयोध्या प्रसाद खत्री उर्दू विरोधी हिन्दी-आन्दोलन का मुखर विरोध करते थे। हिन्दी और उर्दू की एकता की बात तत्कालीन साहित्यकारों को मंजूर नहीं थी। भाषा को धर्म के आधार पर बाँटने की रणनीति में इससे दरार पड़ती थी। इन्हीं सब वजहों से अयोध्या प्रसाद खत्री और उनकी भाषा-नीति का लगातार विरोध होता रहा।
(2005)
इसके अलावा इन तीनों रचनाकरों के अलावा डॉ. ग्रियर्सन भी खड़ीबोली की कविता को असम्भव करार दे रहे थे। इन चारों लेखकों ने अपनी इस धारणा का आधार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कथन को बनाया था। इनका मानना था कि जब भारतेन्दु ही खड़ीबोली में कविता नहीं रच सके तो फिर दूसरे रचनाकारों की क्या औकात? भारतेन्दु हरिश्चन्द्र 'रसा' उपनाम से गज़ल लिखते थे। इसके साथ ही उनके खड़ीबोली में कविता लिखने का जिक्र दो बार मिलता है। 1881 ई. में कलकत्ता से छोटूलाल मिश्र के सम्पादन में प्रकाशित 'भारत मित्र' के लिए खड़ीबोली हिन्दी में लिखे दोहे के साथ एक खत भेजा था–'प्रचलित साधुभाषा में कुछ कविता भेजी है। देखिएगा कि इसमें क्या कसर है और किस उपाय का अवलम्ब करने पर इस भाषा में काव्य सुन्दर बन सकता है। इस कविता में सर्वसाधारण की अनुमति ज्ञात होने पर आगे से वैसा परिश्रम किया जाएगा। तीन भिन्न छन्दों में यह अनुभव ही करने के लिए कि किस छन्द में इस भाषा का काव्य अच्छा होगा, कविता लिखी है। मेरा चित्त इससे सन्तुष्ट न हुआ और न जाने क्यों ब्रजभाषा से इसके लिखने में दूना परिश्रम किया कि खड़ीबोली में कविता बनाऊँ पर वह मेरे चित्तानुसार नहीं बनी। इससे निश्चय होता है कि ब्रजभाषा ही में कविता करना उत्तम होता है और इसी से सब कविता ब्रजभाषा में ही उत्तम होती है।" अव्वल तो यह कि भारतेन्दु के चित्तानुसार कविता नहीं बनी तो उन्होंने नतीजा निकाल लिया कि ब्रजभाषा में कविता करना उत्तम होता है। खुद से जो काम नहीं हो सका, उसके बारे में नतीजा निकालना अपने-आप पर टिप्पणी है।
गौरतलब है कि इन्हीं पंक्तियों के आधार पर भारतेन्दु के प्रति अन्धभक्ति रखने वाले तत्कालीन लेखक खड़ीबोली में पद्य-रचना को असम्भव करार दे रहे थे। अन्धसमर्थकों द्वारा किसी भी विचारक, गुरु या नेता की बातों का ऐसा ही हश्र होता है। अव्वल तो यह कि अन्धभक्त अपने 'आराध्य' की बात को आलोचनात्मक दृष्टि से नहीं देखते। बदलती ऐतिहासिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में उन विचारों का विकास भी नहीं कर पाते हैं। भारतेन्दु की बातों का भारतेन्दु-मंडल के सदस्यों के लिए कितना महत्त्व था, राधाचरण गोस्वामी के इस बयान से इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। ''उनके (भारतेन्दु) के लेख ग्रन्थ हमको वेद वाक्यवत, प्रमाण और मान्य थे। उनको मानो ईश्वर का एकादश अवतार मानते थे। हमारे सब कामों में वह आदर्श थे, उनकी एक-एक बात हमारे लिए उदाहरण थी।" इस बयान से भारतेन्दु का व्यक्तित्व और गोस्वामीजी सरीखे लेखकों की अन्धभक्ति का पता चलता है। वेद के वाक्यों पर आर्यसमाजी हिन्दुओं द्वारा सवाल उठाना, जिस प्रकार पाप माना जाता था उसी प्रकार इन लोगों द्वारा भारतेन्दु की बात का प्रतिवाद करना तो दूर उस पर शंका करना भी मानो पाप जैसा था। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि इतिहास के जिस दौर में बुद्धिवाद, आलोचनात्मक वृत्ति का विकास हो रहा था, उस दौर में हिन्दी के बड़े लेखकों में ऐसा भाव कायम था। भारतेन्दु के प्रति इनकी अन्धभक्ति का आलम यह था कि वे उनकी बात को भी ठीक से नहीं समझ पा रहे थे। ऐसे ही अन्धसमर्थकों से आजीज आकर अयोध्या प्रसाद खत्री ने 'एक अगरवाले के मत पर खत्री की समालोचनाा' शीर्षक पैम्फलेट छपवाकर बँटवाया। खत्रीजी ने लिखा कि 'बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ईश्वर नहीं थे। उनको शब्दों का (फिलोलॉजी) कुछ भी बोध नहीं था। यदि फिलोलॉजी का ज्ञान होता तो खड़ीबोली पद्य में रचना नहीं हो सकती है, ऐसा नहीं कहते' इतिहास के इस दौर में जब भारतेन्दु-मंडल के लेखकों की तूती बोलती थी, उस समय भारतेन्दु के बारे में ऐसी टिप्पणी काबिल-ए-बर्दाश्त नहीं थी। हालाँकि खत्रीजी की बात तार्किक थी।
उन्नीसवीं सदी के उत्तराद्र्ध के दौर में बिहार में उर्दू भाषा के विरोध में हिन्दी-आन्दोलन नहीं चल रहा था। बिहार का हिन्दी-आन्दोलन उर्दू और हिन्दी को साथ लेकर चल रहा था। जबकि तत्कालीन पश्चिमोत्तर प्रान्त का हिन्दी-आन्दोलन उर्दू और मुसलमानों का प्रखर विरोध कर रहा था। अयोध्या प्रसाद खत्री उर्दू विरोधी हिन्दी-आन्दोलन का मुखर विरोध करते थे। हिन्दी और उर्दू की एकता की बात तत्कालीन साहित्यकारों को मंजूर नहीं थी। भाषा को धर्म के आधार पर बाँटने की रणनीति में इससे दरार पड़ती थी। इन्हीं सब वजहों से अयोध्या प्रसाद खत्री और उनकी भाषा-नीति का लगातार विरोध होता रहा।
(2005)
हर काल में ऐसा देखा जाता है कि कुछ रचनकार जो उस काल प्रवृति के अनुसार रचना करते हैं, उन्हें उस काल का रचनाकार माना जाता है हालाँकि जो उससे अलग रास्ते बनाते है उन्हें या तो उस प्रवृति का नहीं माना जाता है या उन्हें ख़ारिज कर दिया जाता हैं। मुक्तिबोध ने भी यह प्रश्न अपनी रचना 'एक साहित्यिक की डायरी' के विशिष्ट और अद्वितीय शीर्षक के लेख में उठाते हैं। ऐसा प्रायः हिंदी के उन सभी रचनाकारों के साथ हुआ हैं जो युगपरिवर्तक रहे हैं। लेकिन बाद के समय में जब आलोचक उनके योगदान को सामने लाते हैं; तभी वे मुख्यधारा के पाठकों के केंद्र में अपना स्थान पाते हैं।
जवाब देंहटाएंऐसे में हमें इस बात पर विशेष बल दिया जाना चाहिए कि आखिर बड़े बड़े आलोचक जैसे शुक्लजी, द्विवेदी जी और अब तक के अन्य तमाम आलोचक उनके योगदान को क्यों नहीं सामने लायें। आखिर क्या वजह रही की खड़ी बोली के रुप में हिंदी के स्थापना के बावजूद ये चर्चा का विषय नहीं बने। अगर इसपर भी विचार किया जाय तो इससे आलोचना जगत को एक नयी दिशा मिल सकती है कि आखिर ऐसे व्यक्तित्व वाले रचनाकारों के सामने न आने के पीछे क्या वजह हो सकती हैं। और आगे से इसपर भी आलोचक ध्यान दे सके। क्योंकि समय के साथ कुछ न कुछ ऐसे रचनाकार आते रहेंगे, जो आलोचक की दृष्टि से ओझल रहेंगे। अतः इसके निराकरण के साथ ही इस रोग के फैलने के कारण और जड़ की भी पड़ताल होनी चाहिए।
हर काल में ऐसा देखा जाता है कि कुछ रचनकार जो उस काल प्रवृति के अनुसार रचना करते हैं, उन्हें उस काल का रचनाकार माना जाता है हालाँकि जो उससे अलग रास्ते बनाते है उन्हें या तो उस प्रवृति का नहीं माना जाता है या उन्हें ख़ारिज कर दिया जाता हैं। मुक्तिबोध ने भी यह प्रश्न अपनी रचना 'एक साहित्यिक की डायरी' के विशिष्ट और अद्वितीय शीर्षक के लेख में उठाते हैं। ऐसा प्रायः हिंदी के उन सभी रचनाकारों के साथ हुआ हैं जो युगपरिवर्तक रहे हैं। लेकिन बाद के समय में जब आलोचक उनके योगदान को सामने लाते हैं; तभी वे मुख्यधारा के पाठकों के केंद्र में अपना स्थान पाते हैं।
जवाब देंहटाएंऐसे में हमें इस बात पर विशेष बल दिया जाना चाहिए कि आखिर बड़े बड़े आलोचक जैसे शुक्लजी, द्विवेदी जी और अब तक के अन्य तमाम आलोचक उनके योगदान को क्यों नहीं सामने लायें। आखिर क्या वजह रही की खड़ी बोली के रुप में हिंदी के स्थापना के बावजूद ये चर्चा का विषय नहीं बने। अगर इसपर भी विचार किया जाय तो इससे आलोचना जगत को एक नयी दिशा मिल सकती है कि आखिर ऐसे व्यक्तित्व वाले रचनाकारों के सामने न आने के पीछे क्या वजह हो सकती हैं। और आगे से इसपर भी आलोचक ध्यान दे सके। क्योंकि समय के साथ कुछ न कुछ ऐसे रचनाकार आते रहेंगे, जो आलोचक की दृष्टि से ओझल रहेंगे। अतः इसके निराकरण के साथ ही इस रोग के फैलने के कारण और जड़ की भी पड़ताल होनी चाहिए।
तथ्यात्मक सूचनाओं के साथ बहुत सुन्दर लेख। नई जानकारी।
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