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सत्यार्थ प्रकाश एवं आर्य-समाज

 सत्यार्थ प्रकाश एवं आर्य-समाज

-- राजीव रंजन गिरि  



वर्तमान को जानने-समझने और बेहतर भविष्य का निर्माण करने के लिए अतीत की वस्तुनिष्ठ जानकारी निहायत जरूरी होती है। वर्तमान भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक समस्याओं के उद्भव को जानने और उसके चरित्र को पहचानकर मौजूदा चुनौतियों का सामना करने के लिए वैचारिक औजार गढऩे हेतु उन्नीसवीं सदी के भारत में हुए धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक हलचलों की पड़ताल जरूरी है। उन्नीसवीं सदी का दौर 'नवजागरण' का दौर था। इस दौर में प्रत्येक सचेत सुधारक अपने-अपने दृष्टिकोण से अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहा था। तत्कालीन भारत की परिस्थितियों पर गौर करें तो दिखेगा कि देश अँग्रेजी साम्राज्यवाद की जंजीर में जकड़ा था और साधारण लोग धर्म के नाम पर ठगी, वाह्याडम्बर, अन्धविश्वास और छुआछूत में जकड़े हुए थे। हिन्दू समाज में कारोबारी लोगों और शिक्षित शहरी मध्यवर्ग का उदय हो चुका था, जिन्हें आधुनिकता की मलय-बयार अच्छी लग रही थी। अपने धर्म में आस्था रखनेवाले तत्कालीन हिन्दू-नेताओं को जरूरत महसूस हुई कि आधुनिकता ने जिन सवालों को धर्म के समक्ष खड़ा किया है, हिन्दू धर्म की जिन गड़बडिय़ों को उजागर किया है, उसके मद्देनजर हिन्दू धर्म के संरचनागत बदलाव लाकर इसे एक नया रूप दिया जाए। इसी क्रम में ब्रह्म-समाज, आर्य-समाज जैसे कई नये पन्थों की स्थापना हुई। 

     उन्नीसवीं सदी के भारतीय नवजागरण में हिन्दू नवजागरण और हिन्दू नवजागरण में स्वामी दयानन्द सरस्वती, सत्यार्थ प्रकाश तथा आर्य समाज का खास महत्त्व है। डॉ. वीरभारत तलवार की किताब "हिन्दू नवजागरण की विचारधारा : सत्यार्थ प्रकाश–समालोचना का एक प्रयास " के बहाने दयानन्द और आर्यसमाज की वैचारिक सरणियों की ऐतिहासिक पड़ताल करती है। वामपन्थी लेखकों में दयानन्द सरस्वती और आर्य समाज को लेकर आमतौर पर दो दृष्टियाँ दिखती हैं। डॉ. तलवार के मुताबिक 'कई वामपन्थी विचारक दयानन्द सरस्वती और आर्य समाज का नाम आने पर ऐसे नाक-भौं सिंकोड़ते हैं मानो इनके महत्त्व पर विचार करना पिछड़ेपन की निशानी हो, मानो इनकी सराहना करना साम्प्रदायिक होने का सबूत हो।' इसके ठीक उल्टा डॉ. रामविलास शर्मा ने अपने लेख 'नवजागरण की परम्पराएँ और क्रान्तिकारी आन्दोलन–संन्यासियों का योगदान' में दयानन्द के द्वारा सभी धर्मों की समान रूप से की गयी कड़ी आलोचना को कबीर की 'ना हिन्दू ना मुसलमान' वाली परम्परा से जोड़ा। डॉ. शर्मा ने दयानन्द के विचारों की सीमाओं को नजरअन्दाज करते हुए उन्हें हर तरह से क्रान्तिकारी विचारक के रूप में पहचाना। डॉ. वीरभारत तलवार का मानना है कि ''ये दोनों दृष्टिकोण गलत और बेबुनियाद हैं। ये दृष्टिकोण या तो अज्ञान पर आधारित है या ज्ञान को तोड़-मरोड़कर अपने इच्छानुसार पेश करने के दुराग्रह से उपजे हैं।" (पृ० 7) लेखक ने अपनी किताब में दयानन्द की विचारधारा को 'बुद्धि-विवेकशीलता, वर्ण-व्यवस्था, विधवा-विवाह, फंडामेंटलिज्म, राजनीति और निष्कर्ष शीर्षक अध्यायों में बाँटकर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में उसको समझने का आलोचनात्मक प्रयास किया है। डॉ. तलवार का कहना है कि उन्नीसवीं सदी के भारतीय नवजागरण में राजा राममोहन राय, रानाडे जैसे सुधारकों ने बुद्धि-विवेकशीलता की धारणा पश्चिमी सम्पर्क से हासिल की थी लेकिन दयानन्द ने पश्चिमी शिक्षा के बिना ही, प्राचीन देशी परम्परा के अन्दर से इसे विकसित किया था। लेखक ने कुछ सवाल उठाते हुए उनका जवाब खोजने की कोशिश की है, ''देशी परम्परा और प्रत्यक्ष अनुभवों के स्रोत पर आधारित बुद्धि-विवेकशीलता ने हमारे नवजागरण में कैसी भूमिका अदा की? इसकी सीमाएँ और चारित्रिक विशेषताएँ क्या थीं? हमारी जरूरतों के लिहाज से यह किस हद तक कारगर रही? उससे प्रेरित चिन्तन और व्यवहार किस दिशा में आगे बढ़ा?" (पृ० 14) यह सच है कि दयानन्द पश्चिमी शिक्षा से वंचित थे लेकिन पश्चिमी शिक्षा प्राप्त लोगों के विचारों से परिचित एवं प्रभावित थे। दयानन्द के 'सत्यार्थ प्रकाश' की प्रेरणा एवं मॉडल पश्चिमी शिक्षा प्राप्त महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर की किताब 'ब्रह्मोधर्म' थी। जिस प्रकार देवेन्द्र ठाकुर ने ब्रह्मोमत के आधार पर अपने सदस्यों के पारिवारिक सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन की व्यवस्था देने की कोशिश की है, उसी प्रकार दयानन्द ने 'सत्यार्थ प्रकाश' में वेदों के आधार पर 'एक नया मनुष्य', नयी जीवन-प्रणाली और नया समाज' बनाने का प्रयास किया है। सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने लिखा है– 'मेरा इस ग्रन्थ को बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्य-सत्य अर्थ का प्रकाश करना है अर्थात जो सत्य है उसको सत्य और जो मिथ्या है, उसको मिथ्या ही प्रतिपादित करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा गया हैै' लेकिन सत्य क्या है और मिथ्या क्या है? इसका 'मन्त्र' दयानन्द को अपने गुरु विरजानन्द से मिल चुका था। एक मात्र सत्य वेद ही है जो ईश्वरकृत है। बाकी सब मिथ्या। यही गुरुमन्त्र–दयानन्द की सीमा थी। सवाल उठता है कि दयानन्द क्या सिर्फ गुरुमन्त्र की वजह से ऐसा कर रहे थे अथवा ऐतिहासिक परिस्थितियों का भी प्रभाव था? मध्यकाल में पहली बार बहुदेववादी हिन्दू धर्म का साबका एकेश्वरवादी इस्लाम धर्म से पड़ा। मध्यकालीन सन्त कवियों ने भी एकेश्वरवादी धारणा का प्रचार-प्रसार किया था। कालान्तर में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ ईसाई मिशनरियाँ आयीं। ईसाई धर्म भी एकेश्वरवाद है। बहुदेववादी हिन्दू धर्म अपनी आन्तरिक गड़बडिय़ों से (न कि बहुदेववादी होने से) इनके समक्ष कमजोर पड़ रहा था। इस्लाम और ईसाई दोनों धर्म केन्द्रीकृत रहे हैं। हिन्दू धर्म का स्वरूप केन्द्रीकृत नहीं रहा है। हिन्दू धर्म के किसी भी ग्रन्थ को 'अहले किताब' जैसी मान्यता नहीं मिली है। वेद, पुराण, स्मृति, उपनिषद सबका समान महत्त्व है। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह किस पुस्तक को ज्यादा महत्त्व देता है। इसके लिए 'हिन्दू धर्म' में कोई खास विधान नहीं है। जबकि इस्लाम धर्म और ईसाई धर्म में क्रमश: 'पवित्र कुरान' एवं 'पवित्र बाइबिल' की अवधारणा रही है। इन धर्मों में मान्यता है कि ये किताबें स्वयं ईश्वर के द्वारा लिखी गयी हैं। हिन्दू धर्म और सेमेटिक धर्म (इस्लाम व ईसाई आदि) में यह बुनियादी फर्क है। दयानन्द के समक्ष धर्मान्तरण कर रहे हिन्दुओं के रूप में एक चुनौती थी। पश्चिमी राष्ट्र-राज्य की अवधारणा ने इसे हवा दी, जिसके तहत एक धर्म, एक भाषा, एक संस्कृति से एक राष्ट्र बनता है। पश्चिमी 'राष्ट्र-राज्य' के साथ जुड़े उपर्युक्त मूल्य भारतीयता के प्रतिकूल है। (इसका सुन्दर एवं तार्किक विश्लेषण समाजवादी विचारक सच्चिदानन्द सिन्हा ने 'हम नेशन नहीं राष्ट्र हैं' शीर्षक आलेख में, जो उनकी किताब 'भारतीय राष्ट्रीयता एवं साम्प्रदायिकता' मराल प्रकाशन मुजफ्फरपुर–1990 में संकलित है–किया है।) स्वामी दयानन्द हिन्दू धर्म और सेमेटिक धर्म के साथ भारतीय राष्ट्र और यूरोपिय नेशन के बुनियादी फर्क को नजरअन्दाज कर रहे थे। आखिर दयानन्द ऐसा क्यों कर रहे थे? तत्कालीन भारत ब्रिटिश उपनिवेश था। ब्रिटिश सत्ता के साथ धर्मान्तरण कराने वाली मिशनरियाँ भी आयी थीं। इस्लाम धर्म के फैलाव में भी उसकी राजसत्ता सहायक रही थी। जाहिर है कि ऐसी परिस्थितियों में एक तरफ अपनी धार्मिक कुरीतियों का बोध होगा जिन्हें सुधारने की कोशिश सुधारक कर रहे थे। दूसरी तरफ अपने शासक वर्गों का धर्म एक आदर्श-नमूने के रूप में दिखा। यही वजह है कि दयानन्द ने सेमेटिक धर्म (इस्लाम और ईसाई) के अनुरूप हिन्दू धर्म को गढऩे की कोशिश की। इन्हीं कारणों से दयानन्द में उर्पयुक्त दोनों प्रवृत्तियाँ अपने धर्म की कुरीतियों का विरोध एवं 'वेद' के आधार पर एक 'नये धर्म' को गढऩे की कोशिश मिलती है। साथ ही यूरोपीय 'नेशन-स्टे्ट' के अनुरूप भारतीय 'राष्ट्र' को बदलने की कोशिश कर रहे थे।
बहरहाल, दयानन्द की वैचारिक सरणी में 'नवजागरण' का जो प्रस्थान दिखता है वह पूर्णत: ''अँग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी मूल्यों से प्रेरित न होकर हिन्दू धर्म के पतन के खिलाफ एक हिन्दू की प्रतिक्रिया के रूप में उभरा था।" (पृ० 13) डॉ. तलवार ने ठीक नोट किया है कि– ''हिन्दू धर्म और समाज की बुराइयों के खिलाफ उन्होंने विद्रोह किया। इस विद्रोह की जड़ें लोकतन्त्र और बुद्धि-विवेकशीलता (रेशनलिटी) की आधुनिक यूरोपीय धारणाओं में न होकर भारत की देशी परम्परा में थी।" (पृ० 13) उल्लेखनीय है कि नवजागरण के दो बड़े शख्स, दयानन्द और रामकृष्ण परमहंस–दोनों को अँग्रेजी शिक्षा नहीं मिली थी। बावजूद इसके इन दोनों संन्यासियों ने अपने समय के अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त युवकों को अपनी ओर आकर्षित किया। लेखक ने इसके कारणों का बिल्कुल ठीक विश्लेषण किया है कि दोनों संन्यासियों ने धर्म का जो रूप गढऩा चाहा, पारम्परिक समाज के शिक्षित वर्ग ने उसमें एक नया गौरव पाया–प्राचीन हिन्दू परम्परा में बने रहते हुए भी आधुनिक होने का गौरव।
        नवजागरण की अपनी खूबी क्या है? इसका जवाब देते हुए वीर भारत तलवार लिखते हैं–''अपनी परम्परा, धर्म, रीति-रिवाजों और सामाजिक संस्थाओं को आलोचनात्मक दृष्टि से देखना, उन्हें बुद्धि-विवेक की कसौटी पर जाँचकर ठुकराना या अपने समय के मुताबिक सुधारना हर नवजागरण की चाहे वह यूरोपीय हो या भारतीय–सबसे केन्द्रीय विशेषता रही है।"(पृ० 13) लेखक ने इस किताब में दयानन्द के विचार में मौजूद 'बुद्धि-विवेकशीलता' की पड़ताल की है। डॉ. तलवार की यह खूबी है कि वे चीजों की बारीकियों को देखते हैं। अपने निष्कर्ष के लिए किसी पक्ष को नजरअन्दाज नहीं करते हैं। दयानन्द के विचार में मौजूद छोटे-छोटे तत्वों का भी ऐतिहासिक विकासक्रम में जाँचकर विश्लेषण करते हैं उस दौर की अन्य समानधर्मा घटनाओं से तुलना करते हैं। इस प्रकार, वे प्रत्येक घटना एवं निर्णय को एक व्यापक दायरे में ले आते हैं। नतीजतन वे तत्कालीन ऐतिहासिक परिस्थितियों में दयानन्द के महत्त्व को स्वीकारते हुए उनके अन्तर्विरोधों का खुलासा करते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती का हिन्दू धर्म में वही स्थान है जो ईसाई धर्म में मार्टिन लूथर का। दयानन्द 'धर्म' और 'धार्मिकता' के विरोधी नहीं थे। बल्कि 'तर्क' और 'नैतिकता' के आधार पर नये धर्म की स्थापना कर रहे थे। यही वजह है कि उन्होंने हिन्दू धर्म की तथाकथित पवित्र प्रथाओं को तर्क की कसौटी पर कसकर देखा और गलत होने पर उसके खिलाफ प्रचार किया। उन्होंने मूर्तिपूजा, भगवान के अवतार, पुरोहित, जातिप्रथा, छुआछूत, तीर्थ व्रत, गंगास्नान वगैरह को धार्मिक पाखंड बताया। दान-दक्षिणा वगैरह को लालची ब्राह्मणों की करतूत बताया। उन्होंने कहा कि मूर्तियों में ईश्वर को मानना, पूजा करना, भोग लगाना धर्म नहीं है। इसे दयानन्द ने 'अज्ञानमूलक कर्म' बताया। उन्होंने बताया कि जड़ की पूजा करने से आत्मा भी जड़ हो जाती है। वे मूर्तिपूजा को हिन्दू धर्म पर जैनियों का दुष्प्रभाव बताते थे। दयानन्द के अनुसार वेदों में मूर्तिपूजा कहीं नहीं मिलती है, क्योंकि यह आर्यों की संस्कृति का अंग नहीं थी। उल्लेखनीय है कि दयानन्द सिर्फ उन्हीं हिन्दू ग्रन्थों को मान्यता देते हैं जो वेदों के मत को पुष्ट करता हो अथवा दयानन्द को खुद पसन्द हो। वे वेद को छोड़कर सभी ग्रन्थों को तर्क के दायरे में लाते हैं। इस प्रकार एक ओर जहाँ दयानन्द सेमेटिक धर्म के रूप में हिन्दू धर्म को नया चोला पहनाकर इसे मजबूत बनाना चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर आम हिन्दुओं को यह विश्वास दिलाते हैं कि वे नया कुछ भी नहीं कर रहे हैं, बल्कि मूल एवं प्रामाणिक हिन्दू धर्म की स्थापना कर रहे हैं।
भारतीय आम जनता का मनोविज्ञान इससे स्पष्ट होता है कि प्राचीनकाल से ही कोई विद्वान, अपनी बात को अपने द्वारा कही नयी बात न बताकर, उसे पुराने ग्रन्थों से पुष्ट करता है। यह बताता है कि उक्त बातें फलाँ ग्रन्थ में पहले से कही गयी हैं। मैं तो सिर्फ उनको 'फिर से' कह रहा हूँ। वेद के प्रति भी आम भारतीयों का श्रद्धा-भाव कितना था, इसे समझने के लिए हमें याद करना होगा कि आखिर क्या वजह थी कि 'नाट्यशास्त्र' जैसे साहित्यिक शास्त्र को 'पंचम वेेद' का दर्जा दिया गया। कहना होगा, 'पंचम वेद' का दर्जा पाकर ही नाट्य शास्त्र स्वीकृत हो सकता था। जाहिर है कि दयानन्द जहाँ कुरीतियों से ऊब चुके शिक्षित मध्यवर्ग को धार्मिक खुराक दे रहे थे, वह भी इस विश्वास के साथ कि यही वास्तविक हिन्दू धर्म है। साथ ही इस्लाम और ईसाई जैसे सेमेटिक धर्मों के बरअक्स एवं उसके समान हिन्दू धर्म को बदल रहे थे। दयानन्द अपने द्वारा स्थापित नये धर्म को हिन्दू धर्म के बदले आर्य धर्म कहते थे। हिन्दी भाषा जिसमें वे प्रचार-प्रसार कर रहे थे, उसे 'आर्य भाषाा' कहते थे एवं इस देश को भारत या हिन्दुस्तान कहने की बजाय 'आर्यावर्त्त' कहते थे। वे दरअसल पश्चिमी राष्ट्र-राज्य की धारणा के मुताबिक ऐसा गढ़ रहे थे।
        दयानन्द के विचारों और तर्कों में बुनियादी अन्तर्विरोध दिखता है। वे एक तरफ तो 'कुरान' और 'बाइबिल' को ईश्वरीय रचना कहे जाने की खिल्ली उड़ाते हैं, जबकि स्वयं वेदों को ईश्वर की रचना मानते हैं। डॉ. तलवार ने लिखा है कि ''बुद्धि-विवेकशीलता के मामले में दयानन्द का सबसे चर्चित और विवादास्पद पक्ष उनकी वेद सम्बन्धी मान्यताएँ हैं। उन्होंने वेद को सिर्फ एक मुकम्मल धार्मिक ग्रन्थ ही नहीं माना, बल्कि उसे सभी विधाओं–इतिहास, भूगोल, राजनीति, दर्शन, कानून और विज्ञान–और समस्त मानव-ज्ञान का एकमात्र सही ग्रन्थ माना।" (पृ० 27) दयानन्द उन्नीसवीं सदी के हिन्दू सुधारकों में एकमात्र ऐसे नेता थे जो कुछ मुस्लिम पुनरुत्थानवादियों की तरह गुजरे हुए सुनहले वक्त को लौटने की अपील कर रहे थे। दयानन्द के समकालीन सैयद अहमद खाँ ने कुरान की तार्किक व्याख्या करते हुए, मुस्लिम समाज की बदली हुई परिस्थितियों और जरूरतों के हिसाब से, कुरान की कई बातों को छोडऩे का आह्वान किया था। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कर्म के आधार पर वर्ण-व्यवस्था को मानते हुए भी ब्राह्मण कर्म को श्रेष्ठ एवं शूद्र कर्म को सबसे नीचा बतलाया। वर्ण-व्यवस्था को कर्म के आधार पर लागू करने का जो उपाय दयानन्द बताते हैं, वह व्यावहारिकता से कोसों दूर दिखता है। डॉ. तलवार ने दिखाया है कि ''वर्ण-व्यवस्था के सिलसिले में दयानन्द का मत एक कदम क्रान्तिकारी था। उन्होंने शूद्रों को शिक्षा और वेद आदि शास्त्र पढऩे का अधिकारी माना। यह पुरानी वर्ण-व्यवस्था पर हमला था और समाज-सुधार की दिशा में आगे बढ़ा हुआ कदम था।" (पृ० 37) दयानन्द ने अपने प्रिय ग्रन्थ 'मनुस्मृति' के उन सभी अंशों को अप्रामाणिक बताया जिनमें शूद्र पर तरह-तरह की पाबन्दियाँ लगायी गयी थीं। बहरहाल दयानन्द के समय और शूद्रों के वेद-पाठ पर रोक के समय के बीच जो फर्क है, उसे नजरअन्दाज करना उचित नहीं है। डॉ. तलवार ने शूद्रों को लेकर 'सत्यार्थ प्रकाश' के अन्तर्विरोध एवं ब्राह्मण-ग्रन्थों के प्रति दयानन्द की 'दुविधा' का विश्लेषण करते हुए चार वर्णों से बाहर रखे गये दलितों के सवाल पर दयानन्द की चुप्पी को उजागर किया है।
     
      स्त्रियों का सवाल, उन्नीसवीं सदी के, नवजागरण के केन्द्र में था। स्त्रियों से सम्बन्धित चार मुद्दे– सतीप्रथा, बाल-विवाह, स्त्री-शिक्षा और विधवा-विवाह मुख्य थे। चूँकि दयानन्द से पूर्व सतीप्रथा के खिलाफ कानून बन चुका था, इसलिए इस सवाल पर सत्यार्थ प्रकाश में कुछ नहीं मिलता। दयानन्द ने बाल-विवाह का पुरजोर विरोध किया एवं स्त्री-शिक्षा पर बल दिया। शादी में स्त्री-पुरुष के हर तरह के मेल पर जोर देते हुए दयानन्द ने लड़कियों के विवाह की न्यूनतम उम्र सोलह वर्ष एवं पुरुषों के लिए पच्चीस वर्ष उचित बताया। बावजूद इसके आदर्श विवाह के लिए स्त्री-पुरुष की उम्र क्रमश: चौबीस एवं अड़तालिस साल निश्चित करते हुए उन्हें अटपटा नहीं लगा। ऐसे में उनके आदर्श विवाह के लिए निर्धारित उम्र उनकी पूर्व मान्यताओं को तोड़ती है। दयानन्द ने गृहस्थी में दोनों की बराबर की हैसियत पर जोर दिया। दोनों (स्त्री व पुरुष) को एक-दूसरे के अधीन रहने को कहा साथ ही यह भी कहा कि 'स्त्री घर के काम पुरुष के आज्ञानुसार करे।' सवाल उठता है कि जब बराबरी का सम्बन्ध है तो पुरुष के आज्ञानुसार स्त्री घर का कार्य करे, ऐसा क्यों? वीर भारत तलवार ने ठीक कहा है कि द्विज जातियों के शिक्षित भद्रवर्गीय परिवारों के सारे मूल्य और मर्यादाएँ अपनी असंगतियों सहित सत्यार्थ प्रकाश में मिल जाती हैं। स्त्रियों से सम्बन्धित तीसरे मुद्दे, विधवा-विवाह के बारे में दयानन्द द्विज एवं शूद्र स्त्रियों के लिए अलग-अलग विधान प्रस्तावित करते हैं। जबकि वे एक 'आर्यधर्म' के लिए 'एक विधान' पर खुद जोर देते हैं। ऐसा कर दयानन्द 'वास्तव में अपने ही एक बड़े उद्देश्य को पराजित करते हैं। पूरे भारत में एक संस्कृति कायम करने की इच्छा के बावजूद ऐसी व्यवस्थाओं से वे व्यवहार में दो तरह की संस्कृतियों का, जो पहले से मौजूद थीं, समर्थन करते हैं–एक द्विज संस्कृति दूसरी शूद्र संस्कृति।' (पृ० 42)स्वामी दयानन्द सरस्वती पुनर्जन्म पर विश्वास कर शोषणमूलक सामाजिक व्यवस्था को वैध ठहराते हैं। शोषण की चक्की में पिस रहे लोगों को उसके पिछले कर्म का फल बताकर व्यवस्था के शोषणमूलक चरित्र को छिपाते हैं। साथ ही जनता का उस व्यवस्था के प्रति विश्वास भी जगाते हैं।
क्या सत्यार्थ प्रकाश फंडामेंटलिस्ट ग्रन्थ है? वीरभारत तलवार ने फंडामेंटलिज्म की चारित्रिक विशेषताओं जैसे–शुद्धतावादी और पुनरुत्थानवादी दृष्टि, काल्पनिक अतीत की रचना और राजनीतिक शक्ति की महत्त्वाकांक्षा, अलगाववाद, अपने-आप को पूर्णत: सही एवं दूसरे को गलत मानने की प्रवृत्ति आदि के आधार पर सत्यार्थ प्रकाश की जाँच-पड़ताल की है। लेखक ने दयानन्द के समकालीन समाज-सुधारकों से उनकी तुलना की है तथा उनके प्रति दयानन्द के रवैये को भी परखा है। अपने गम्भीर विश्लेषण के बाद डॉ. तलवार इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि ''आर्य समाज और सत्यार्थ प्रकाश एक ज्यादा जटिल चीज है जो पूरी तरह से फंडामेंटलिस्ट नहीं है, हालाँकि उसमें फंडामेंटलिज्म की कुछ बुनियादी विशेषताएँ प्रबल रूप से मौजूद हैं। उसमें सुधार भी है और फंडामेंटलिज्म भी। रूढि़वाद भी है और आधुनिकता भी। अच्छे तत्त्व भी हैं और बुरे भी। तर्कशीलता भी है और तर्कहीनता भी। कट्टरता है और उदारता भी। इस जटिलता के कारण सत्यार्थ प्रकाश और उस पर खड़े आर्य समाज का फंडामेंटलिज्म अपने ढंग का है जिसमें प्रगतिशील सुधारों के साथ-साथ शुद्धतावादी, पुनरुत्थानवादी और साम्प्रदायिक प्रवृत्तियाँ भी दिखाई देती हैं।" (पृ० 59) लेखक का उपर्युक्त कथन सत्यार्थ प्रकाश एवं आर्य समाज आन्दोलन के प्रत्येक पक्ष का गहराई से विश्लेषण करने का परिणाम है।
        
        'आलोचना' के सहस्राब्दी अंक–नौ में सदानन्द शाही ने सवाल उठाया है कि ''दयानन्द की विचारधारा के अच्छे तत्त्वों का विकास क्यों नहीं हुआ। वे कौन-से सामाजिक अवरोध थे जिन्होंने इन अच्छे तत्त्वों को भोथरा और विकृत किया?" (पृ० 168)डॉ. वीरभारत तलवार ने अपनी किताब में दयानन्द की विचारधारा एवं आर्य समाज की विकृतियों के साथ उन वजहों एवं स्थितियों का भी खुलासा किया है, जो दयानन्द की विचारधारा में निहित अच्छे तत्त्वों के लिए रुकावट बने। डॉ० तलवार ने बताया है कि दयानन्द खुद जिन लक्ष्यों को लेकर चले थे, ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण उनसे मुकाबला न कर समझौता करने लगे। साथ ही अपने जीवन के उत्तराद्र्ध में कई ऐसे मुद्दों से अपने को जोडऩे लगे, जिनका उनके प्रारम्भिक लक्ष्य से दूर-दूर का वास्ता नहीं था। वे जिस हिन्दू धर्म के खिलाफ आन्दोलन कर रहे थे, उसी की नीतियों के अनुसार अपने आन्दोलन को बदलने लगे। बहरहाल दयानन्द के विचारों के इन अन्तर्विरोधों को देखे बिना, उन पर कोई एक ठप्पा लगा देना, अपनी परम्परा व इतिहास के प्रति अन्याय होगा।
( 2004)

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर लेख है। सत्यार्थ प्रकाश और दयानंद सरस्वती के विचारों को लेकर जो द्वंद पैदा होता है , आपके लेख से उसको समझने में आसानी हुई। समय के साथ समाज मे परिवर्तन लाज़मी है। पर यह परिवर्तन किसी का दामन पकड़ कर ही आ सकता है और मैं ये कह सकता हूँ कि तत्कालीन समय मे वह दामन दयानंद सरस्वती, विवेकानंद जैसे विद्वानों का रहा है। आपने हिन्दू धर्म और सेमेटिक धर्म में अंतर अच्छे से बताया।

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  2. 'सत्यार्थ प्रकाश ' पर वीरभारत तलवार और आपके विचार पढ़े.किसी भी विचारक की महत्वपूर्ण कृति का आकलन मूल रूप से उस परिप्रेक्ष्य को पकड़कर किया जाना चाहिए जिन परिस्थितियों की ज़रूरत को देखकर उसे लिखने की अनिवार्यता लेखक को महसूस हुई.तत्कालीन भारत की करवट ले रही स्तिथियों में यह ज़रूरी था.वीरभारत तलवार को मैंने पढ़ा है.अपनी विशिष्ट सोच से बाहर आना उनके लिये नामुमकिन है.विशेष विचारधारा वाली पत्रिकाओं के गढ़ में घूमघूम कर इन्हें ही पढ़ते रहना पाठक की विवशता भी हो सकती है.रामविलास शर्मा मार्क्सवादी आलोचक माने जाते हैं परन्तु उनपर भी मार्क्सवाद से इतर जाने का आरोप लगा. 'सत्यार्थप्रकाश ' के विचारक ने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों, धार्मिक कर्मकांडों, अशिक्षा और स्त्री अधिकारों की अलख जगाई.पराधीन भारत के वेदपाठियों को उन्हीं के अस्त्र - शस्त्रों से जर्जरित किया. यह अपनों से अपनों का मानसिक संघर्ष था क्योंकि, मन और मस्तिष्क की मलिनता को झाड़े बिना राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाई ही नहीं जा सकती थी. और, यह कितना कठिन था कि उनके आह्वान पर देश एकजुट होकर स्वाधीनता संग्राम में भारी योगदान देने लगा था. हम कृतघ्न नहीं हो सकते.लोगों ने तो प्रेमचंद को भी खारिज करने में कसर नहीं छोड़ी!? गांधी जी की उपेक्षा तक से बाज़ नहीं आये. हमें ठहर और थमथम कर सतर्कता से ऐसे विषयों पर हाथ डालने की ज़रुरत है.आप इसे लेकर सावधानी पूर्वक आगे बढ़े हैं. साधुवाद.

    -- प्रो. मीरा गौतम
    पंजाब विश्वविद्यालय

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  3. 'सत्यार्थ प्रकाश ' पर वीरभारत तलवार और आपके विचार पढ़े.किसी भी विचारक की महत्वपूर्ण कृति का आकलन मूल रूप से उस परिप्रेक्ष्य को पकड़कर किया जाना चाहिए जिन परिस्थितियों की ज़रूरत को देखकर उसे लिखने की अनिवार्यता लेखक को महसूस हुई.तत्कालीन भारत की करवट ले रही स्तिथियों में यह ज़रूरी था.वीरभारत तलवार को मैंने पढ़ा है.अपनी विशिष्ट सोच से बाहर आना उनके लिये नामुमकिन है.विशेष विचारधारा वाली पत्रिकाओं के गढ़ में घूमघूम कर इन्हें ही पढ़ते रहना पाठक की विवशता भी हो सकती है.रामविलास शर्मा मार्क्सवादी आलोचक माने जाते हैं परन्तु उनपर भी मार्क्सवाद से इतर जाने का आरोप लगा. 'सत्यार्थप्रकाश ' के विचारक ने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों, धार्मिक कर्मकांडों, अशिक्षा और स्त्री अधिकारों की अलख जगाई.पराधीन भारत के वेदपाठियों को उन्हीं के अस्त्र - शस्त्रों से जर्जरित किया. यह अपनों से अपनों का मानसिक संघर्ष था क्योंकि, मन और मस्तिष्क की मलिनता को झाड़े बिना राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाई ही नहीं जा सकती थी. और, यह कितना कठिन था कि उनके आह्वान पर देश एकजुट होकर स्वाधीनता संग्राम में भारी योगदान देने लगा था. हम कृतघ्न नहीं हो सकते.लोगों ने तो प्रेमचंद को भी खारिज करने में कसर नहीं छोड़ी!? गांधी जी की उपेक्षा तक से बाज़ नहीं आये. हमें ठहर और थमथम कर सतर्कता से ऐसे विषयों पर हाथ डालने की ज़रुरत है.आप इसे लेकर सावधानी पूर्वक आगे बढ़े हैं. साधुवाद.

    -- प्रो. मीरा गौतम
    पंजाब विश्वविद्यालय

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  4. 'सत्यार्थ प्रकाश ' पर वीरभारत तलवार और आपके विचार पढ़े.किसी भी विचारक की महत्वपूर्ण कृति का आकलन मूल रूप से उस परिप्रेक्ष्य को पकड़कर किया जाना चाहिए जिन परिस्थितियों की ज़रूरत को देखकर उसे लिखने की अनिवार्यता लेखक को महसूस हुई.तत्कालीन भारत की करवट ले रही स्तिथियों में यह ज़रूरी था.वीरभारत तलवार को मैंने पढ़ा है.अपनी विशिष्ट सोच से बाहर आना उनके लिये नामुमकिन है.विशेष विचारधारा वाली पत्रिकाओं के गढ़ में घूमघूम कर इन्हें ही पढ़ते रहना पाठक की विवशता भी हो सकती है.रामविलास शर्मा मार्क्सवादी आलोचक माने जाते हैं परन्तु उनपर भी मार्क्सवाद से इतर जाने का आरोप लगा. 'सत्यार्थप्रकाश ' के विचारक ने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों, धार्मिक कर्मकांडों, अशिक्षा और स्त्री अधिकारों की अलख जगाई.पराधीन भारत के वेदपाठियों को उन्हीं के अस्त्र - शस्त्रों से जर्जरित किया. यह अपनों से अपनों का मानसिक संघर्ष था क्योंकि, मन और मस्तिष्क की मलिनता को झाड़े बिना राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाई ही नहीं जा सकती थी. और, यह कितना कठिन था कि उनके आह्वान पर देश एकजुट होकर स्वाधीनता संग्राम में भारी योगदान देने लगा था. हम कृतघ्न नहीं हो सकते.लोगों ने तो प्रेमचंद को भी खारिज करने में कसर नहीं छोड़ी!? गांधी जी की उपेक्षा तक से बाज़ नहीं आये. हमें ठहर और थमथम कर सतर्कता से ऐसे विषयों पर हाथ डालने की ज़रुरत है.आप इसे लेकर सावधानी पूर्वक आगे बढ़े हैं. साधुवाद.

    -- प्रो. मीरा गौतम
    पंजाब विश्वविद्यालय

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  5. 'सत्यार्थ प्रकाश ' पर वीरभारत तलवार और आपके विचार पढ़े.किसी भी विचारक की महत्वपूर्ण कृति का आकलन मूल रूप से उस परिप्रेक्ष्य को पकड़कर किया जाना चाहिए जिन परिस्थितियों की ज़रूरत को देखकर उसे लिखने की अनिवार्यता लेखक को महसूस हुई.तत्कालीन भारत की करवट ले रही स्तिथियों में यह ज़रूरी था.वीरभारत तलवार को मैंने पढ़ा है.अपनी विशिष्ट सोच से बाहर आना उनके लिये नामुमकिन है.विशेष विचारधारा वाली पत्रिकाओं के गढ़ में घूमघूम कर इन्हें ही पढ़ते रहना पाठक की विवशता भी हो सकती है.रामविलास शर्मा मार्क्सवादी आलोचक माने जाते हैं परन्तु उनपर भी मार्क्सवाद से इतर जाने का आरोप लगा. 'सत्यार्थप्रकाश ' के विचारक ने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों, धार्मिक कर्मकांडों, अशिक्षा और स्त्री अधिकारों की अलख जगाई.पराधीन भारत के वेदपाठियों को उन्हीं के अस्त्र - शस्त्रों से जर्जरित किया. यह अपनों से अपनों का मानसिक संघर्ष था क्योंकि, मन और मस्तिष्क की मलिनता को झाड़े बिना राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाई ही नहीं जा सकती थी. और, यह कितना कठिन था कि उनके आह्वान पर देश एकजुट होकर स्वाधीनता संग्राम में भारी योगदान देने लगा था. हम कृतघ्न नहीं हो सकते.लोगों ने तो प्रेमचंद को भी खारिज करने में कसर नहीं छोड़ी!? गांधी जी की उपेक्षा तक से बाज़ नहीं आये. हमें ठहर और थमथम कर सतर्कता से ऐसे विषयों पर हाथ डालने की ज़रुरत है.आप इसे लेकर सावधानी पूर्वक आगे बढ़े हैं. साधुवाद.

    -- प्रो. मीरा गौतम
    पंजाब विश्वविद्यालय

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  6. बहुत ही बढ़िया विश्लेषण। सत्यार्थ प्रकाश और दयानन्द सरस्वती के विचारों और विचार निर्मिती के विभिन्न कारकों पर बहुत ही तार्किक ढंग से प्रकाश डाला गया हैं। इसे पढने के बाद दयानंद सरस्वती और आर्यसमाज के बारे न जानने वाले व्यक्ति के भी मनोंमस्तिष्क में आर्यसमाज की पृष्ठभूमि की एक स्पष्ट छवि बनेगी।

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  7. 'सत्यार्थ प्रकाश ' पर वीरभारत तलवार और आपके विचार पढ़े.किसी भी विचारक की महत्वपूर्ण कृति का आकलन मूल रूप से उस परिप्रेक्ष्य को पकड़कर किया जाना चाहिए जिन परिस्थितियों की ज़रूरत को देखकर उसे लिखने की अनिवार्यता लेखक को महसूस हुई.तत्कालीन भारत की करवट ले रही स्तिथियों में यह ज़रूरी था.वीरभारत तलवार को मैंने पढ़ा है.अपनी विशिष्ट सोच से बाहर आना उनके लिये नामुमकिन है.विशेष विचारधारा वाली पत्रिकाओं के गढ़ में घूमघूम कर इन्हें ही पढ़ते रहना पाठक की विवशता भी हो सकती है.रामविलास शर्मा मार्क्सवादी आलोचक माने जाते हैं परन्तु उनपर भी मार्क्सवाद से इतर जाने का आरोप लगा. 'सत्यार्थप्रकाश ' के विचारक ने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों, धार्मिक कर्मकांडों, अशिक्षा और स्त्री अधिकारों की अलख जगाई.पराधीन भारत के वेदपाठियों को उन्हीं के अस्त्र - शस्त्रों से जर्जरित किया. यह अपनों से अपनों का मानसिक संघर्ष था क्योंकि, मन और मस्तिष्क की मलिनता को झाड़े बिना राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाई ही नहीं जा सकती थी. और, यह कितना कठिन था कि उनके आह्वान पर देश एकजुट होकर स्वाधीनता संग्राम में भारी योगदान देने लगा था. हम कृतघ्न नहीं हो सकते.लोगों ने तो प्रेमचंद को भी खारिज करने में कसर नहीं छोड़ी!? गांधी जी की उपेक्षा तक से बाज़ नहीं आये. हमें ठहर और थमथम कर सतर्कता से ऐसे विषयों पर हाथ डालने की ज़रुरत है.आप इसे लेकर सावधानी पूर्वक आगे बढ़े हैं. साधुवाद.

    -- प्रो. मीरा गौतम
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