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एक थे बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री : राजीव रंजन गिरि

   एक थे बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री  -- राजीव रंजन गिरि         मौजूदा दौर में हिन्दी-साहित्य का सामान्य विद्यार्थी अयोध्या प्रसाद खत्री को लगभग भूल चुका है। आखिर इसकी वजह क्या है? क्या अयोध्या प्रसाद खत्री का अवदान इतना कम है कि वह साहित्य के विद्यार्थियों के सामान्य-बोध का अंग न बन सकें। अथवा यह हिन्दी-साहित्य के इतिहासकारों और आलोचकों के दृष्टिकोण की खामी है या अध्ययन की किसी खास रणनीति का नतीजा?                       भारतेन्दु युग से हिन्दी-साहित्य में आधुनिकता की शुरुआत हुई। उस दौर के रचनाकारों को आधुनिकता की शुरुआत करने का श्रेय दिया जाता है, जो वाजिब है। इसी दौर में बड़े पैमाने पर भाषा और विषय-वस्तु में बदलाव आये। खड़ीबोली हिन्दी गद्य की भाषा बनी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सहित सभी इतिहासकार-आलोचकों ने विषय-वस्तु के साथ-साथ भाषा के रूप में खड़ीबोली हिन्दी के चलन को आधुनिकता का नियामक माना है। गौरतलब है कि इतिहास के उस कालखंड में, जिसे हम भारतेन्दु युग के नाम से जानते हैं, खड़ीबोली हिन्दी गद...

स्त्री - विमर्श : एक टिप्पणी

  स्त्री - विमर्श : एक टिप्पणी                    -- राजीव रंजन गिरि                   स्त्री-विमर्श हिन्दी साहित्य के बहस-मुबाहिसे में केन्द्रीय विमर्श के तौर पर शुमार हो चुका है। कुछ लोगों का तो यहाँ तक मानना है कि फिलहाल यह साहित्य का  ' विजेता विमर्श'   है। यही वजह है कि इस विमर्श के विकास और व्याप्ति को देखकर नाक-भौंह सिकोडऩे वाले लोग भी कुछ किन्तु-परन्तु भले ही लगाएँ ,  पर सीधे तौर पर नकारने की बात नहीं कर पाते। साहित्य की परिधि में बढ़ते विमर्श को देखकर जो लोग घबराते हैं ,  असल में वे अपनी अधूरी समझ का ही परिचय देते हैं। समय के साथ कदम-ताल न मिलाकर ,  अपनी पुरानी कसौटी पर साहित्य में आने वाले विमर्श या विमर्शों के साहित्य को परखने की हास्यास्पद कोशिश करते प्रतीत होते हैं। अपनी समझ मौजूदा समय के हिसाब से नहीं ढालने का ही नतीजा है यह कहना, कि इन विमर्शों ने साहित्य का दायरा संकुचित बनाया है और संकीर्ण भी। जबकि सच्चाई तो यह है कि भक्ति-आन्दोलन और प्रगतिशील-आन्...

सत्यार्थ प्रकाश एवं आर्य-समाज

  सत्यार्थ प्रकाश एवं आर्य-समाज -- राजीव रंजन गिरि    वर्तमान को जानने-समझने और बेहतर भविष्य का निर्माण करने के लिए अतीत की वस्तुनिष्ठ जानकारी निहायत जरूरी होती है। वर्तमान भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक समस्याओं के उद्भव को जानने और उसके चरित्र को पहचानकर मौजूदा चुनौतियों का सामना करने के लिए वैचारिक औजार गढऩे हेतु उन्नीसवीं सदी के भारत में हुए धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक हलचलों की पड़ताल जरूरी है। उन्नीसवीं सदी का दौर 'नवजागरण' का दौर था। इस दौर में प्रत्येक सचेत सुधारक अपने-अपने दृष्टिकोण से अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहा था। तत्कालीन भारत की परिस्थितियों पर गौर करें तो दिखेगा कि देश अँग्रेजी साम्राज्यवाद की जंजीर में जकड़ा था और साधारण लोग धर्म के नाम पर ठगी, वाह्याडम्बर, अन्धविश्वास और छुआछूत में जकड़े हुए थे। हिन्दू समाज में कारोबारी लोगों और शिक्षित शहरी मध्यवर्ग का उदय हो चुका था, जिन्हें आधुनिकता की मलय-बयार अच्छी लग रही थी। अपने धर्म में आस्था रखनेवाले तत्कालीन हिन्दू-नेताओं को जरूरत महसूस हुई कि आधुनिकता ने जिन सवालों को धर्म के समक्ष खड़ा किया है, हिन्दू...

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भक्ति-आंदोलन : अवसान और अर्थवत्ता

   भक्ति-आंदोलन : अवसान और अर्थवत्ता राजीव रंजन गिरि भक्ति-काल भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की एक महत्वपूर्ण परिघटना है। इसकी व्याप्ति किसी एक भाषा या इस मुल्क के किसी एक हिस्से तक महदूद नहीं है। इसके अखिल भारतीय दायरे को ध्यान में रखें तो करीब-करीब एक हजार साल के बीच पसरे इस काल-खंड की निजी विशिष्टताएँ, इसे एक आंदोलन का दर्जा प्रदान करती हैं। इतने लंबे समय तक फैले इस दौर का असर न सिर्फ साहित्य बल्कि कला-संस्कृति के हरेक अनुशासन पर दिखता है। अलग-अलग अनुशासन के महत्वपूर्ण अध्येताओं ने इसकी पुष्टि भी की है। साहित्य के संदर्भ में देखने पर, यह पता चलता है कि इतने लंबे काल-खंड और तमाम मातृभाषाओं/लोकभाषाओं के इस साहित्य में एक स्तर पर, समानताएँ हैं, जो इन्हें एक-दूसरे से, ऊपरी तौर पर जोड़ती हैं। दूसरे स्तर पर, इन सबकी खालिस निजी खासियत भी मौजूद है। यही निजी महत्वपूर्ण खासियत, इन्हें एक-दूसरे से विशिष्ट भी बनाती है। यह विशिष्टता हर स्तर पर नोट की जा सकती है; भाषा, क्षेत्र, रचनाकार, वर्ग, लिंग और संप्रदाय आदि हरेक स्तर पर। इस समीक्षात्मक निबंध में उत्तर भारत, या आज जिसे हिंदी-उर्दूभाषी इल...